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व्यावहारिक सत्य
पिछले कई दिनों से आपके सामने सत्य का विवेचन चल रहा है । सत्य का स्वरूप बहुत विराट है, देश और काल की कोई भी सीमाएँ उसे अपनी परिधि में नहीं घेर सकतीं । ऐसी स्थिति में सत्य का सम्पूर्ण विवेचन शब्दों द्वारा नहीं हो सकता, शब्दों में उसे बाँधा नहीं जा सकता। फिर भी प्रयत्न किया जा रहा है कि उसका अधिक से अधिक व्यापक स्वरूप आपके सामने रखा जा सके। सत्य की तस्वीर, भले ही वह धुंधली ही क्यों न हो, पर सर्वांगीण हो, लँगड़ी न हो और वह आपके समक्ष रख दी जाए। इसी कारण सत्य के सम्बन्ध में बातें चल रही हैं ।
अहिसा पर हमने, हमारे पूर्वजों ने और हमारे महापुरुषों ने बहुत अधिक चर्चा की है और मनन भी किया है। बाद में उसके गलत या सही रूप हो गए, यह दूसरी बात है, फिर भी अहिंसा को हम झटपट समझ जाते हैं । किन्तु सत्य के सम्बन्ध में ऐसा नहीं कहा जा सकता।
मगर सत्य का दर्जा छोटा नहीं है। अहिंसा के समान ही सत्य भी महान् है और इतना महान् है कि जब तक सत्य को भली-भाँति न समझ लिया जाए, अहिंसा को भी भली-भाँति नहीं समझा जा सकता। अकेली अहिंसा या अकेला सत्य जीवन में नहीं उतारा जा सकता। अहिंसा के बिना सत्य में और सत्य के बिना अहिंसा में अधूरापन है और उससे जीवन की पूर्णता प्राप्त नहीं हो सकती। संभव नहीं कि अहिंसा आगे बढ़ जाए और सत्य पीछे रह जाए। दोनों को साथ-साथ कदम बढ़ाना है। फिर भी देखा जाता है कि जनता में अहिंसा जितनी दूर-दूर तक पहुँची है, सत्य उतना नहीं पहुंचा। मगर अहिंसा में प्राण डालने के लिए सत्य को भी वहाँ पहुँचना चाहिए। इसी दृष्टिकोण को सामने रखकर सत्य के सम्बन्ध में विस्तृत बातें की जा रही हैं।
आज सत्य के दार्शनिक रूप में न जाकर व्यावहारिक रूप का हमें विचार करना है। सत्य का व्यावहारिक रूप भी हमारे जीवन का एक बड़ा और महत्त्वपूर्ण प्रश्न है और उस पर विचार करने की आवश्यकता है।
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