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अन्ध-विश्वास (२)
सत्य हमारे जीवन का एक बहुत महत्त्वपूर्ण अंग है। हमारे जीवन की जितनी भी साधनाएँ हैं, उन सब में सत्य का सामंजस्य होना नितान्त आवश्यक है। सत्य, साधना का प्राण है। साधना का प्राण-सत्य, जिन साधनाओं में आकाश की भाँति व्याप्त है, वही सच्ची साधनाएँ हैं। जिनमें सत्य की व्याप्ति नहीं, उन साधनाओं में प्राण नहीं हैं, वे निष्फल हैं । ऐसी साधनाएँ जिस उच्च उद्देश्य से की जाती हैं, उसे सफल नहीं बना सकतीं।
__ मान लीजिए. एक श्रावक सामायिक करता है और जब करता है, तो उस समय उसका मन भी, वचन भी और काया भी अहिंसा और सत्य में रमण करते हैं और जब तक रमण करते हैं, तभी तक वह सामायिक सच्ची सामायिक है। इसके विपरीत, मन, वचन और काया यदि और ही कहीं भटक रहे हैं और तीनों में एकरूपता कायम नहीं हो पाई है, तो सामायिक सच्ची साधना नहीं है। साधक को उसकी सच्ची रोशनी नहीं मिल पाती है।
तपश्चरण के सम्बन्ध में भी यही बात है। हमारे समाज में बहुत लम्बे-लम्बे तप किए जाते हैं और लम्बी-लम्बी साधनाएँ की जाती हैं । कल एक सज्जन ने कहा-"क्या बात है कि पहले के युग में तो एक तेला करते ही देव भागे चले आते थे
और मनुष्य के मन में एक आध्यात्मिक राज्य कायम हो जाता था और एक बहुत उच्च चिन्तन चल पड़ता था। तीन दिन की साधना इतनी बड़ी साधना थी कि इन्द्र का भी आसन डोलने लगता था। किन्तु, आज इतनी बड़ी-बड़ी तपस्याएँ होती हैं, फिर भी इनमें से कुछ भी नहीं होता है।'
ऐसा कहने वाले सज्जन बूढ़े थे। उनकी बात सुनकर मैंने सोचा-इनके मन में भी तर्क ने प्रवेश कर लिया है और इनके मन में भी गुत्थी को सुलझाने की कोशिश हो रही है। वास्तव में इनको हक है कि वे चिन्तन करें, विचार करें और अपने मन का समाधान प्राप्त करें।
मैंने सहज भाव में कहा-'इस युग की बातें और उस युग की बातें कोई अलंग-अलग नहीं हैं। ऐसा तो नहीं है कि पुराने युग में तपस्या कुछ और रंग रखती
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