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१५६ / सत्य दर्शन
"वने रणे शत्रुजलाग्निमध्ये, महार्णवे पर्वतमस्तके वा ।
सुप्तं प्रमत्तं विषमस्थितं वा, रक्षन्ति पुण्यानि पुराकृतानि ॥" "तू वन में है तो क्या, युद्ध के मैदान में है तो क्या, महासमुद्र को तैरना है तो भी क्या, और भयंकर दावानल जल रहा है तो भी क्या, सोया हुआ है तो भी क्या और जागा हुआ है तब भी क्या, कोई पहरेदार हो तो क्या और न हो तो क्या है। अगर तुम्हारा पुण्य और भाग्य पहरा दे रहा है और तकदीर साथ दे रही है, तो बाल भी बाँका नहीं होने वाला है। और यदि भाग्य ही रूठ गया है और जीवन में कोई भूल हो गई है, तो दुनिया भर की व्यवस्था और संरक्षण चलते रहेंगे, फिर भी अचानक मृत्यु आकर घसीट ही ले जाएगी।
सिद्धान्त का ऐसा निर्णय होने पर भी, दुर्भाग्य से हिन्दुस्तानियों को भय बना रहता है। वे सौ-सौ आशीर्वाद लेकर चलते हैं। किसी पनिहारिन को कह देंगे, तो वह घड़ा भर का सामने ले आएगी। आगे चलने पर कदाचित् खाली घड़ा मिल गया, तो चले तो जाएँगे, मगर कुढ़ते हुए जाएँगे और खाली लौटने का संकल्प लेकर जाएँगे।
प्रत्येक कार्य की सफलता के लिए दृढ़ मनोबल की आवश्यकता होती है। मनुष्य के प्रयत्न की अपेक्षा भी मनोबल अधिक प्रभाव-जनक होता है। ऐसी स्थिति में जो मनुष्य खाली लौटने की मनोवृत्ति लेकर चला है, उसके मन में सफलता के लिए आवश्यक संकल्प ही नहीं रह जाता है और फिर वह असफल होता है, तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? वास्तव में उसकी असफलता का कारण उसकी निर्बल मनोवृत्ति है, मगर समझता वह यह है कि खाली घड़ा मिल जाने से वह असफल हो गया है। इस प्रकार खाली घड़ा नहीं, खाली घड़े को देखकर उप्पन्न हुआ वहम और तज्जन्य मानसिक दुर्बलता ही उसे असफल बनाती है।
एक भाई के विषय में मुझे मालूम है । वे नवकार मन्त्र और वीतराग देव का ध्यान करके चलते और आगे कोई तेली मिल जाता, तो फिर लौटकर दुकान पर आ जाते। बच्चे पूछते-"क्या बात है ? आप लौट क्यों आये ?"
वह कहते-'अपशकुन हो गया, सामने तेली आ गया।"
ऐसे विचार आज सब जगह अड्डा जमाए हैं । नवकार मन्त्र पढ़कर चले थे, मगर एक तेली की टक्कर लगती है, तो नवकार मन्त्र की शक्ति भी क्या गायब हो
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