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सत्य दर्शन / १४९ उनकी दया और प्रेम का लहराता हुआ समुद्र ही बनता गया। उन्होंने कहीं भी लेशमात्र भी क्रोध या आवेश को जगह नहीं दी। यदि तपस्या के साथ क्रोध या आवेश जरूरी है, तो वह सब जगह होना चाहिए और पहले भी होना चाहिए थो। जब हम ऐसा नहीं देखते, तो यह मानते हैं कि ऐसा होना आवश्यक नहीं है। तप की क्रोध से व्याप्ति नहीं :
तप और क्रोध या आवेश का साहचर्य मान लेना हमारा भ्रम है और एक प्रकार का असत्य है। जब तक हमारी साधना में रस नहीं आया है, हम साधना में घुल-मिल नहीं गए हैं और गहरा प्रवेश नहीं कर पाते हैं, तभी तक क्रोध और आवेश रहता है। अतएव इस धारणा के मूल में भूल है और जब तक उस भूल को दुरुस्त नहीं कर लिया जाता, जीवन का वास्तविक विकास नहीं हो सकता। तपस्या में जब सत्य का समन्वय होगा, तभी उसमें बल और शक्ति का संचार होगा।
इसी प्रकार हमारे जीवन की जो दूसरी साधनाएँ हैं, उनमें भी सत्य की तलाश करना होगा। साधना चाहे साधु की हो या गृहस्थ की, सत्य के प्राण आए बिना वह निर्जीव ही रहने वाली है। साधक को विचार करना पड़ेगा कि बाहर से वह आगे बढ़ रहा है, तो अन्दर में क्यों पिछड़ रहा है ? बाहर में जितनी दूर चले गए हैं, अन्दर में उतनी दूर क्यों नहीं पहुँच सके ?
आम तौर पर देखा जाता है कि साधक बाहर के वातावरण में तो बाजी मार ले गए. किन्तु अन्दर की जिन्दगी को उस ओर मोड़ने में, मन को उस मार्ग पर चलाने में जैसे लड़खड़ा जाते हैं, उस समय पता चलता है कि वे कितने गहरे पानी में हैं ?
साधु-जीवन की ही बात लीजिए। एक साधु साधना के पथ पर चलता दिखाई देता है, और अपने जीवन के ५०-६० वर्ष उसी पथ पर चलता रहता है, किन्तु जीवन की अन्तिम घड़ियों में वह जब मरने से डरता है, लड़खड़ाता है और खाने-पीने के लोभ को भी नहीं छोड़ पाता है, तो मालूम हो जाता है कि इतने वर्षों तक उसका जीवन कहाँ चला हँ ? अन्दर में चला या बाहर बाहर में ही ?
जीवन जब बहिर्मुख होकर ही चलता है और अन्तर्मुख नहीं होता, भीतर रोशनी नहीं होती, तो वह खिल नहीं सकता। बाह्य साधना के साथ अन्दर में प्रकाश आना ही चाहिए, संकट के समय में भी चेहरे पर मुस्कराहट खिलनी ही चाहिए। कितने ही
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