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सत्य दर्शन / १२३
एक ईंट ही नहीं थापी गई है और उसी से यह खड़ा नहीं हो गया है । अनेक छोटी-छोटी ईंटों के, चूने के और रेत के नगण्य कणों के मिलने पर ही महल में विशालता आई है। इसी प्रकार हमारे जीवन के छोटे-छोटे व्यवहार, बरताव, आदतों आदि के सम्मिलन से ही हमारा जीवन बना है और वहीं से सत्य की शुरूआत होती है। बोलचाल में सत्य हो, व्यवहार में सत्य हो, रहन-सहन और खान-पान में सत्य हो और हमारे प्रत्येक वायदे में सत्य हो, तभी सत्यमय जीवन का निर्माण संभव है। अगर हमने इन बातों में सत्य की उपेक्षा की और सत्य-असत्यय का विचार न किया, तो जीवन असत्यमय बन जाएगा। असत्य, जीवन के छोटे-छोटे छिद्रों में से प्रवेश करके समग्र जीवन को ग्रस लेता है और फिर जीवन का निर्माण नहीं हो सकता ।
आप सर्दी-गर्मी से बचने के लिए चादर ओढ़ लेते हैं, मगर चादर की असलियत पर विचार कीजिए। वह एक ही किसी तार से नहीं बनी है। उसमें पतले-पतले अनेक तार हैं और उन्हीं को चादर का रूप प्राप्त हो गया है और वह एक ताकत बन गई है। किन्तु अलग-अलग तारों का क्या महत्त्व है? अलग-अलग तार होंगे, तो वह चादर नहीं कहलाएगी। इसी प्रकार हमारे छोटे-मोटे सभी व्यवहार मिलकर जीवन का रूप ग्रहण करते हैं । परन्तु हम उन व्यवहारों में तो सत्य को महत्व देते नहीं, राजा हरिश्चन्द्र को महत्त्व देते हैं। परिणाम यह होता है कि हम न हरिश्चन्द्र बन पाते हैं, न अपने जीवन का निर्माण कर पाते हैं, और इस हालत में छोटा और बड़ा सत्य दोनों ही हाथ नहीं लग पाते ।
लोग संस्था बनाते हैं और कार्यकर्त्ताओं का चुनाव होता है। कार्यकर्त्ता चुन लिया जाता है और वह पद ग्रहण कर लेता है। फिर भी वह उस संस्था का यथावत् कार्य नहीं करता, सिर पर लिये हुए उत्तरदायित्व को नहीं निभाता और वर्षों के वर्ष बीत जाने पर भी वह उस पद पर जमा रहता है। इस प्रकार लोग पद-लोलुपता के कारण किसी संस्था के अध्यक्ष बन जाते हैं, किसी के मन्त्री बन जाते हैं, परन्तु अपने उत्तरदायित्व को अनुभव नहीं करते। यह भी जीवन में एक बड़ा असत्य है, जिसे आम तौर पर असत्य नहीं समझा जाता है ।
जिस काम को तुम नहीं कर सकते, जिसको करने की योग्यता ही तुम में नहीं है अथवा योग्यता होने पर भी जीवन के संघर्षों में उलझे रहने के कारण अवकाश नहीं निकाल पाते, उसका उत्तरदायित्व अपने कंधों पर लेते क्यों हो ? उत्तरदायित्व लेते हो, तो उसे शक्ति-भर निभाने का प्रयत्न करो । प्रयत्न करते नहीं और उत्तरदायित्व को त्यागते भी नहीं हो, तो समझ लो कि तुम महान असत्य का आचरण कर रहे हो। ऐसे असत्य को प्रश्रय देकर अपने जीवन की अच्छाइयों के टुकड़े-टुकड़े करते हो ।
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