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१४२ / सत्य दर्शन
जिस जैनधर्म की इतनी ऊँची दृष्टि रही है और इतना उँचा इतिहास रहा है, उसी धर्म को मानने वाले जब अन्ध-विश्वास में फँस जाते हैं और गंडे-ताबीज में विश्वास करने लगते हैं, और उनके लिए इधर-उधर मारे-मारे भटकते हैं, तो खेद और विस्मय की सीमा नहीं रहती।
जब इन सब चीजों को देखते हैं, तो पता चलता है कि वह सब क्या हैं ? भगवान् महावीर का कदम किधर पड़ा था और हमारा किधर पड़ रहा है ? ऐसा मालूम होता है कि पूर्व और पश्चिम का अन्तर पड़ गया है।
भगवान् महावीर का इतिहास आपके सामने है। उन्होंने जब दीक्षा ली, संसार छोड़ा, महलों को छोड़ा, वह महान् साधक जब सोने के महलों से बाहर निकल पड़ा, तो एक क्षण के लिए भी उसने फिर उनकी ओर झाँक कर नहीं देखा और अपने जीवन की राह को तय करते हुए आगे बढ़ा और बढ़ता ही चला गया। गोप और महावीर :
भगवान् एक बार जंगल में ध्यान लगाए खड़े थे। एक ग्वाला उनके पास आया। उसके गाय-बैल वहीं पास में चर रहे थे और उसे पास के किसी गाँव में जाना जरूरी था। उसने भगवान् से कहा-'मेरी गाएँ चर रही हैं। इन्हें जरा देखते रहना । मैं गाँव में जाकर आता हूँ।
वे महान् पुरुष अपनी आत्मा में रमण कर रहे थे। उनकी समग्र चेतना अन्तर्मुखी हो रही थी। अतएव हाँ या ना का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था। वे मौन रहे । ग्वाला कहकर चला गया और जब लौट कर आया, तो गाएँ चरती-चरती इधर-उधर चली गई थीं। किसी टीले की आड़ में आ जाने से उसे दिखाई नहीं दीं । जब उसे गाँए दिखाई न दी, तो वह भगवान् से पूछने लगा-'कहाँ गईं गाएँ ? कोई चुरा ले गया है?'
भगवान् फिर भी मौन ! साधना में निमग्न ! उन्हें अन्तर्जगत् से बहिर्जगत् में कहाँ आना था।
जान पड़ता है कि वर्तमान काल की तरह उस काल में भी दूसरे साधुओं का जीवन अच्छा नहीं था । जैसे आज शरीर पर भभूत रमा लेने वाले और सिर पर लम्बी-लम्बी जटाएँ बढ़ा लेने वाले लोग अविश्वास के पात्र बन गए हैं और उनकी बदौलत साधु-मात्र को कभी-कभी अविश्वास-भाजन बनना पड़ता है। उस समय भी
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