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सत्य दर्शन / १४१
"कोई भी शक्ति हमें सुख या दुःख नहीं पहुँचा सकती। हम जो कर्म बाँध कर आए हैं, उनके विपाक को कोई भी अन्यथा नहीं कर सकता। हमारा भला-बुरा हमारे और सिर्फ हमारे ही हाथ में है, हमारे ही कर्मों के अधीन है।" इस प्रकार की मनोवृत्ति जब मनुष्य में जागृत हो जाएगी, तो देवताओं के सिंहासन खड़े नहीं रह सकेंगे ।
उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर जिले में मेरा चौमासा था। भाद्रपद महीने के शुक्ल पक्ष की दशमी थी। उस दिन एक गृहस्थ ने एक बच्चे को लेकर कत्ल कर दिया और उसके खून से दो बहिनों ने स्नान किया। उन्हें लड़के की चाहना थी और उन्हें बतलाया गया था कि पवित्र धूप - दशमी के दिन लड़के के खून से स्नान करने से लड़का हो जाता है। जब उस कत्ल की बात प्रकट हो गई, तो इस अंध-विश्वास की बदौलत उन्हें जन, धन, वैभव और प्रतिष्ठा से हाथ धोना पड़ा। अन्ध-विश्वास जब अन्तःकरण में छा जाता है, तो मनुष्य को कहीं से भी रोशनी नहीं मिलती, उसका विवेक नष्ट हो जाता है, विचार-शक्ति समाप्त हो जाती है और वह जघन्य से जघन्य कार्य करते भी नहीं हिचकता ।
बालक की हत्या करने वाला वह गृहस्थ जैन कहलाता था । उसने जैन धर्म पाकर भी क्या किया ? जैनधर्म की फिलॉसफी डंके की चोट कहती है कि तुम्हारे कर्मों के प्रतिकूल देवराज इन्द्र भी कुछ नहीं कर सकता, यहाँ तक कि ईश्वर भी कुछ नहीं कर सकता, परन्तु अन्ध-विश्वासी को इतना विचार और विवेक कहाँ ? जो एक कीड़े की भी हिंसा करना पाप समझता है, वही अन्ध-विश्वास की बदौलत, सन्तान प्राप्ति के लोभ में पड़कर ऐसा घोर दुष्कृत्य करने को तैयार हो गया ।
कहाँ तो जैनधर्म का यह आदर्श कि तू स्वयं अपने भविष्य का निर्माता है, तेरे भविष्य का निर्माण करने में कोई भी दूसरी शक्ति हस्तक्षेप नहीं कर सकती, और कहाँ आज के जैन समाज की हीन मनोदशा । शास्त्र घोषणा करता है
'अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य ।'
उत्तराध्ययन
"आत्मा स्वयं ही अपने दुःख-सुख का सृजन करता है और स्वयं ही उनका विनाश कर सकता है। आत्मा स्वयं ही अपने भविष्य को बनाता और बिगाड़ता है। उसके भाग्य के बहीखाते पर दूसरा कोई भी हस्ताक्षर करने वाला नहीं है।" जैनधर्म का यह उच्च और भव्य सन्देश है ।
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