________________
सत्य दर्शन / १२५
हैं। और फिर यह होता है कि बच्चों को न समय पर शिक्षा और वस्त्र ही मिल पाते हैं • और न सांस्कृतिक दृष्टि से उनके जीवन का निर्माण ही हो पाता है। इस प्रकार जीवन की पगडडियों पर वे लड़खड़ाते हुए चलते हैं और उनके जीवन में भूख का हाहाकार चालू रहता है। तब उस परिवार के स्वामी को यह कहने का हक नहीं है कि इतना बड़ा परिवार बन गया है। क्या करूँ, कैसे निभाऊँ ? जब तू, इतने बड़े परिवार को नहीं निभा सकता, तो तूने उसे बनाया ही क्यों ? क्यों उत्तरदायित्व अपने सिर पर ओढ़ा ? जब तू परिवार का स्वामी बना है, तो भले ही तुझे भूखा रहना पड़े या कुछ भी करना पड़े परन्तु परिवार के प्रति ग्रहण लिए उत्तरदायित्व का निर्वाह करना ही पड़ेगा। जब तुम दस - पाँच आदमियों के भरण-पोषण का अधिकार अपने ऊपर लेते हो और व्यवस्था नहीं कर पाते हो और कहते हो कि मैं क्या करूँ, तो सिकन्दर की तरह तुम्हें भी अनुभव करना पड़ेगा कि जो जिस उत्तरदायित्व को पूर्ण नहीं कर सकता, उसे वह उत्तरदायित्व ग्रहण करने का क्या अधिकार है ?
-
जैन समाज कभी करोड़ों की संख्या में था। धीरे-धीरे कम होते-होते आज यह अल्पसंख्यक रह गया है। उसे आप अपने एक गिरोह में रख रहे हैं। किन्तु उस समाज के बच्चों को ठीक समय पर शिक्षा मिलती है या नहीं, उन बच्चों का जीवन-निर्माण हो रहा है अथवा नहीं हो रहा है, इस ओर कोई ध्यान नहीं देते। इसी प्रकार समाज की बहिनें अपने जीवन की समस्या किस प्रकार हल कर रही हैं और समय पर उन्हें अन्न एवं वस्त्र उपलब्ध होता है या नहीं, इस ओर भी कोई ध्यान नहीं दिया जाता है। वे जीवन के भार को ढोए जा रही हैं और सवेरे से शाम तक आँसू बहाने के सिवाय उनके पास कोई काम नहीं है। आप इस स्थिति पर विचार नहीं करते और फिर भी कहते हैं कि हमारे समाज के इतने घर हैं । पूछता हूँ-तुमको ऐसा कहने का अधिकार है ? अपने समाज में उनकी गणना करने का अधिकार किस प्रकार तुम्हें प्राप्त हुआ है ? जब तुम उनके लिए कुछ भी नहीं करते, तो तुम्हें कोई हक नहीं कि उनकी गणना अपने समाज में कर सको। तुम बातें करते हो और समाज के घर गिनाने का प्रसंग आता है, तो चटपट उनकी गणना कर लेते हा और अपनी संख्या विराट बताने का • प्रयत्न करते हो। मगर वर्षों बीत जाने पर भी उनकी सुध नहीं लेते। उनके जीवन के सम्बन्ध में कुछ भी जानकारी नहीं करते। ऐसी स्थिति में सिकन्दर की तरह बुढ़िया तुम से भी कहेगी कि जब समाज के उन अंगों के लिए कोई व्यवस्था नहीं कर पाते, तो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org