________________
१३८ / सत्य दर्शन
अर्थाभाव के कारण दबी पड़ी हैं और जिनके कारण समाज का उपयोगी काम नहीं हो पा रहा है, उन्हें देने को कोई नहीं जाएगा। उन्हें एक पैसा भी देने में तन और मन में वेदना होने लगेगी। इस प्रकार भूखे की भूख तो मिटाई नहीं जाती और जो तृप्त है, उसे निमंत्रण पर निमंत्रण दिए जाते हैं।
यह सब बातें बतलाती हैं कि आपका चिन्तन किस दिशा में जा रहा है। और आपने सामाजिक ढंग पर अपना ठीक विकास नहीं किया है ।
क्या आप कभी सोचते हैं कि देवी-देवताओं के नाम पर भारतवर्ष की जो जन-धन-शक्ति बर्बाद हो रही है, उससे देश का कोई कल्याण होता है ? वहु धनराशि मिट्टी में सड़-सड़ कर विनष्ट हो रही है। उसका विवेक- पूर्वक उपयोग किया जाता, देश की गरीबी दूर होने में मदद मिलती। मगर यह बात लोगों की समझ में नहीं आती, क्योंकि मन्दिरों में जो चढ़ाया जाता है, उससे कई गुना पाने की आशा होती है। अगर देवी का मन्दिर बना दिया, तो समझ लिया जाता है कि स्वर्ग में महल मिल जाएगा । इस स्वार्थ और प्रलोभन की भावना ने भारतीय जीवन को न प्रफुल्लित किया और न ठीक ढंग से विकसित ही होने दिया ।
यह सारा चक्र आतंक, प्रलोभन या भय के कारण चल रहा है, किन्तु जैन-धर्म सबसे पहले इसी भय पर चोट करने आया है और कहता है-"अरे मनुष्य ! डरते क्यों हो ? धन चला जाएगा, दुर्घटना हो जाएगी अथवा मृत्यु हो जाएगी, इस प्रकार की दीनता को अपने अन्तः करण में क्यों स्थान देते हो ? जीवन में जो चीजें होने वाली हैं, उन्हें कोई नहीं रोक सकता और जो नहीं होने वाली हैं, संसार की कोई भी ताकत उन्हें नहीं कर सकती। जैन-धर्म स्पष्ट शब्दों में घोषणा कर रहा है
""स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् । परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं,
स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा ॥"
"तू ने जो भी शुभ या अशुभ कर्म किए हैं, उन्हीं का शुभ या अशुभ फल भोग रहा • है और जैसे कर्म करेगा, वैसा फल भोगना पड़ेगा। दूसरे का दिया भुगतना पड़े, तो अपने निज के कर्म क्या निष्फल हो जाएँगे ? नहीं। जो कुछ भी होने वाला है, अपने ही प्रयत्न से होने वाला है, अतः तू अपने पर ही भरोसा रख कर प्रयत्न कर।"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org