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१२४ / सत्य दर्शन
वृद्धा और सिकन्दर :
महान् सिकन्दर के जीवन की एक घटना है। उसके देश के किसी कोने से एक बुढ़िया निकली और सम्राट के दरबार में पहुँची। वहाँ उसने पुकार मचाई और रोने लगी। उसने कहा-'मेरे पुत्र के ऊपर आपके देश के और मेरे आसपास के लोग अत्याचार कर रहे हैं, वहाँ कोई व्यवस्था नहीं हो रही है और मेरे लड़के का जीवन बर्बाद हो रहा है, मैंने वहाँ के अधिकारियों के सामने पुकार की, मगर कोई सुनवाई नहीं हई। किसी ने मेरी पुकार पर ध्यान नहीं दिया। तब विवश होकर लड़खड़ाती हुई चाल से चलकर आपके दरबार में आई हूँ।''
- सिकन्दर ने उत्तर दिया-"तुम्हारी बात ठीक है। परन्तु यह तो सोचो कि मेरा साम्राज्य कितना बड़ा है ? कितना लम्बा-चौड़ा है। यह गड़बड़ साम्राज्य के एक किनारे पर हो रही है। मैं कहाँ-कहाँ व्यवस्था करने दौडूं ? कहीं न कहीं अव्यवस्था तो हो ही जाती है।"
सिकन्दर का उत्तर सुनकर बुढ़िया कुढ़ गई। उसकी आँखों से आग बरसने लगी - उसने आवेश में आकर कहा-"यदि तुम इतनी दूरी पर व्यवस्था नहीं कर सकते, तो इतने बड़े साम्राज्य के अधिपति क्यों बने हो ? उस टुकड़े को अपने साम्राज्य में क्यों जोड़ रखा है ? तुम कहते हो मैं कहाँ-कहाँ जाऊँ, इसका अर्थ यह है कि तुम व्यवस्था नहीं कर सकते। नहीं कर सकते, तो सल्तनत के साथ अपने नाम को क्यों जोड़ा है ? क्यों उत्तरदायित्व लेकर बैठे हो ? अधिकार चाहिए, पर उत्तरदायित्व नहीं चाहिए ?"
बुढ़िया की कठोर मगर सत्य से परिपूर्ण झिड़की सुनकर सिकन्दर की आँखें खुल गईं। उसने बुढ़िया के पैर पकड़ लिए और कहा-"माँ, तुम ठीक ही कहती हो। जब मैं व्यवस्था नहीं कर सकता, तो अपनी सल्तनत के साथ अपना जोड़ रखने का मुझे कोई अधिकार नहीं है । दूर-दूर के भूखण्डों को साम्राज्य में मिलाते जाने का भी मुझे अधिकार नहीं ।"
अभिप्राय यह है कि जो जिस उत्तरदायित्व को पूरा नहीं कर सकता, उसे वह उत्तरदायित्व ग्रहण भी नहीं करना चाहिए।
एक परिवार है और उसमें माता, पिता, बच्चे, भाई, बहिन आदि हैं । किन्तु ज्यों-ज्यों परिवार बड़ा होता जाता है, परिवार के स्वामी के हाथ-पैर ढीले पड़ते जाते
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