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सत्य दर्शन / १२७ मैं अपने जीवन का एक अनुभव आपको सुनाता हूँ। श्रद्धेय पूज्य गुरुदेव पृथ्वीचन्द्र जी महाराज ने, मैंने, वाचस्पति श्री मदनमुनि जी ने तथा दूसरे सन्तों ने माँवों में विचरण करने का विचार किया। मन में तरंगें उठा करती हैं और जब उठती हैं, तो साधु उनसे चिपट भी जाते हैं। तो हम लोगों ने ग्रामों में ही प्रचार करने का विचार किया। विचार को कार्य में परिणत करने के लिए हम वहाँ से नजदीक के एक गाँव में गए । वहाँ कुछ काम किया और फिर वहाँ के भाइयों से पूछा-कोई गाँव है पास में ? उन भाइयों ने बतलाया-हाँ, कासन गाँव है, किन्तु उसमें जैनी नहीं रहे हैं। पहले तो बहुत थे. पर अब सब आर्य-समाजी बन गए हैं । वे लोग बड़े कट्टर हैं। कोई साधु पहुँच जाता है, तो लड़ने-मरने को तैयार हो जाते हैं। हम ने कहा-कोई भाई हमारे साथ हो. तो हम उसके सहारे चल पड़ें। संयोगवश उसी गाँव का एक ७५ वर्षका वृद्ध वहाँ आ पहुँचा। आकर उसने वन्दना की। उसकी बातचीत से पता लगा कि उस गाँव में जैन धर्म का ध्वंसावशेष है, खंडहर है । मैंने उससे कहा-हम तुम्हारे गाँव कासन चलना चाहते हैं।
वृद्ध बोला--वहाँ कोई जैनी नहीं है। हम ने कहा-तुम तो हो।
वृद्ध असमंजस में पड़ गया। बोला-आपको मुश्किल पड़ेगी ! वहाँ के लोग ठीक नहीं हैं।
इस पर भी जब हमने आग्रह किया तो उसने कहा-तो भले चलिए ।
हम चल पड़े और धर्मशाला में ठहर गए । उस दिन आहार-पानी का भी कष्ट रहा। लेकिन हम वहाँ जमे रहे। थोड़े दिनों में वहाँ जो २०-२५ घर थे, उन्हें सम्यक्त्व दी और नमस्कार-मंत्र पढ़ाना शुरू किया । मालूम हुआ कि बहुत वर्षों से वहाँ कोई साधु नहीं पहुँचे । पारसदास नामक एक गृहस्थ कट्टर आर्य-समाजी था। वह हमारे पास सत्यार्थ-प्रकाश लेकर आया और बराबर संघर्ष करता रहा । उसका सारा का सारा घराना पुनः जैन धर्म में दीक्षित हो गया, मगर वह अपनी बात पर डटा रहा। एक बार मैंने हँसते हुए कहा-मत बनो तुम जैन, मगर तुम्हारा जो नाम है, वह तो जैनों की सूची में है ! तुम्हारा नाम पारसदास है, दयानन्ददास नहीं है !
हम वहाँ से चले आए । तीन वर्ष बाद जब हम आगरा में थे, तो उसकी पीठ में
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