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अन्ध-विश्वास (१)
सत्य का उद्गम-स्थान मनुष्य का मन या विचार है। सूक्ष्म और एकाग्र-भाव से विचार करने पर विदित होगा कि मनुष्य का समग्र जीवन, एक प्रकार से, उसके अपने मन के द्वारा ही शासित और संचालित होता है। मन ही जीवन का सूत्रधार है। तन और वचन, मन की कठपुतिलयाँ हैं। मन जिस प्रकार नचाता है, यह कंठपुतलियाँ वैसी ही नाचती हैं। जब मन को सत्य का प्रकाश मिलता है, तो वही प्रकाश वाणी में और आचरण में भी उतरने लगता है। अतएव सत्य का सम्बन्ध केवल वाणी से अथवा कायिक व्यवहार से ही नहीं हैं, मन के साथ भी है और कहना चाहिए कि मन के साथ बहुत घनिष्ठ है। वाणी एवं आचरण में उतरा हुआ सत्य जनता देख लेती है और मन के सत्य को देखना-परखना कठिन होता है। फिर भी मूल तो वही है। जब तक मन का सत्य नहीं होगा, तब तक वाणी और आचरण के सत्य ठीक-ठीक दिशा नहीं पकड़ सकते ।
जैन शास्त्रकारों ने वाणी और आचरण के सत्य की अपेक्षा विचारों और मन के सत्य को अधिक महत्त्व दिया है। इस सम्बन्ध में जैन-शास्त्र अधिक गहरी धारणाएँ रखते हैं। जैनशास्त्रों का यही मन्तव्य है कि हम अपने मन तथा विचारों में सच्चे हो एँ और यह दिशा यदि साफ हो जाए, तो हम आगे अच्छी तरह गति कर सकते हैं, अन्यथा नहीं कर सकते ।
आप देखते हैं, आज भी जनता में हजारों तरह के अंधविश्वास अपना अड्डा जमाए हुए हैं और हजारों वर्ष पहले भी अड्डा जमाए थे। जनता में घर किए अन्ध परम्पराओं की गणना करने बैठें तो शायद पूरी गणना ही न कर सकें ।
मनुष्य अपनी इच्छाओं का गुलाम बना रहता है और अपनी वासनाओं का दास बना रहता है। जब दास बना रहता है, तो उनकी पूर्ति के लिए प्रयत्न करता है। प्रयत्न करते समय कहीं-कहीं तो ठीक कदम रखता है, परन्तु प्रायः देखा जाता है कि वह अपने कदमों की जाँच नहीं कर पाता और अपने अन्ध-विश्वास से प्रेरित होकर ऐसा गलत रास्ता अपना लेता है कि सत्य की सीमा से बाहर निकल कर असत्य के क्षेत्र में जा पहुँचता है। उसका प्रभाव अपने तक ही सीमित न रहकर राष्ट्र पर भी पड़ता है।
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