Book Title: Satya Darshan
Author(s): Amarmuni, Vijaymuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 144
________________ सत्य दर्शन / १३३ हो जाते हैं । इस प्रकार नाना तरह की इच्छाओं से प्रेरित होकर हजारों आदमी देवी-देवताओं के पास भटकते हुए नजर आते हैं। भारतीय जीवन की यह विरूपता बड़ी ही विस्मयजनक है। भारत के हजारों-लाखों वर्षों के इतिहास को देखेंगे, तो पता चलेगा कि एक ओर यहाँ उच्चकोटि का आध्यात्मिक चिन्तन जागृत था, लोग परमेश्वर का मार्ग पकड़े हुए थें और अहिंसा एवं सत्य के मार्ग पर मजबूत कदम भी रखते थे। आध्यात्मिक जीवन का चिन्तन इतना गहरा था कि उसे नापना भी कठिन हैं। आपस के पारिवारिक एवं सामाजिक कर्त्तव्यों का चिन्तन भी कंम गहरा नहीं रहा है। किन्तु इसके साथ ही, देवी-देवताओं की भी ऐसी भरमार रही है कि सब को इकट्टा किया जाए, तो एक बहुत विशाल सेना भी उनके सामने नगण्य जँचने लगे। इस प्रकार आध्यात्मिक चिन्तन के साथ-साथ असंख्य अन्ध-विश्वास भी हमारे देश में कदम से कदम मिलाए चलते प्रतीत होते हैं । इस प्रकार की विरोधी परिस्थिति जहाँ होती है, वहाँ विकास की सच्चे, और सर्वांगीण विकास की संभावना नहीं की जा सकती । एक आदमी का सिर बहुत बड़ा हो जाए और शरीर का नीचे का भाग काँटे के समान बना रहे, तो वह रूप सुरूप नहीं कहलाएगा। इसी प्रकार किसी के पैर भारी हों गए और हाथ तिनके की तरह रह गए, तो वह भी रूप सुरूप नहीं कहला सकता । शरीर के प्रत्येक अवयव का समान विकास होना ही सच्चा विकास है और उसी विकास में शरीर का वास्तविक सौन्दर्य है। जिस मात्रा में हाथों और पैरों का विकास हो, उसी मात्रा में मस्तिष्क का भी विकास होना चाहिए। एक अंग स्थूल और दूसरा अंग कृश हो, एक सबल और दूसरा दुर्बल हो, एक लम्बा और दूसरा छोटा हो, तो वह कुरूपता का ही द्योतक होगा। जिसे यह कुरूपता नहीं चाहिए और सुन्दरता चाहिए. उसे शरीर के सर्वांगीण विकास की ओर ही ध्यान देना होगा । शरीर के सम्बन्ध में जो बात है, वही जीवन के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। मस्तिष्क को हम विचारमय जीवन का रूप दे सकते हैं और हाथों-पैरों को आचरण- जन्य जीवन कह सकते हैं। जीवन के दोनों पक्ष समान गति से ऊपर उठने चाहिए । विचार की उच्चता के साथ आचार में भी उच्चता आनी चाहिए । विचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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