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सत्य दर्शन / ११७ वफादार रहो, बस इसी से तुम्हारा छुटकारा हो जाएगा, वह सब गुनाहों को माफ करा
देगा ।
हमारे यहाँ, भारत के धर्मों में इसी ढंग की बातें चल रही हैं। गंगा में डुबकी लगा लेंगे, तो पवित्र हो जाएँगे। नदी में स्नान कर लेने से पाप धुल जाएँगे और पहाड़ों पर चढ़ जाने से कष्टों से बच जाएँगे ।
जनता को इस प्रकार की प्रेरणा देने वाले धर्मों ने उसे पापों से बचाने की प्रेरणा नहीं दी, सिर्फ पापों के फल से बचाने की प्रेरणा दी है। परन्तु जैन-धर्म की साधना ऐसी नहीं है। वह पापों से बचाने की साधना है। हिंसा अपने-आप में हिंसा है और बुराई अपने-आप में बुराई है। और जब हम हिंसा को ठुकराते हैं, तो बुराई को बुराई के रूप में ठुकराते हैं। जैन-धर्म ने कोई ऐसा अखाड़ा नहीं, कायम कर रखा है, कोई ऐसी जगह नहीं मानी है, जहाँ परमेश्वर का दरबार लगा हो और गौतम हमारे प्रतिनिधि के रूप में बैठे हों। जैन-धर्म का संदेश तो यह है कि 'हे साधक, तू जहाँ है, वहीं अपने जीवन के लिए काम कर ।'
इसका अभिप्राय यह है कि तू नरक के भय से मत चल और स्वर्ग के लालच से भी मत चल। दोनों के बीच से गली है और वह सीधी मोक्ष की तरफ जा रही है। वह बन्धनों से छुड़ाने के लिए है। नरक वगैरह के भय की बुद्धि से जो कुछ किया जाता है, वह मौलिक दृष्टिकोण नहीं है। अगर तुम पाप को बुरी चीज समझ चुके हो, तो उसी से बचने का प्रयत्न करो। पापों से न डर कर पापों के फल से डरने की जो वृत्ति पैदा हो गई है, उसे दूर कर दो। स्वर्ग की आकांक्षा करना यदि निदान नामक आर्तध्यान है, तो नरक से डरने की चिन्ता भी अनिष्ट संयोग की संभावना से होने वाला आर्तध्यान ही है। आर्तध्यान प्रत्येक दशा में त्याज्य है !
जहाँ पाप से न डर कर पाप के फल से डरने की वृत्ति प्रधान होती है, वहाँ जीवन में विरूपता आए बिना नहीं रहती। आज क्या साधु-समाज और क्या गृहस्थ-वर्ग के जीवन में जो विरूपता दिखाई देती है, उसका मूल यही वृत्ति है। साधु एक जगह तो अपना कुछ रूप रखते हैं और दूसरी जगह दूसरा रूप बना लेते हैं। इसी प्रकार गृहस्थ जब दुकान पर होता है और बेचारा कोई ग्रामीण सौदा लेने आता है, तो उसके सिर के सारे बाल ही साफ कर लेते हैं, और यदि कोई सरकारी आदमी आता है, तो
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