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१०२ / सत्य दर्शन
किन्तु दुर्भाग्यवश, आज हम निराला ही ढंग देख रहे हैं। मनुष्य जो काम कर रहा है, उसकी निगरानी उसके ऊपर के अधिकारी द्वारा होती है, उसकी निगरानी उससे भी ऊँचे अधिकारी द्वारा की जाती है और उसकी भी निगरानी के लिए और ऊँचा अधिकारी नियुक्त है और ऐसा करना आज समाज की आम नीति बन गई है और इसमें कोई बुराई नहीं समझी जा रही है। परन्तु, आखिरकार इस निगरानी की कहीं समाप्ति भी है या नहीं ? क्यों लोगों की समझ में नहीं आता कि यह परम्परा मनुष्यता के लिए घोर कलंक की निशानी है ? अविश्वास की इस परम्परा का स्रोत कहाँ है ?
उत्तर- मनुष्य-जीवन में एकरूपता के अभाव ने इस परम्परा को जन्म दिया है और जब तक प्रत्येक मनुष्य में अपने कर्त्तव्य के प्रति प्रामाणिक वफादारी का भाव उदित नहीं हो जाता, तब तक वह जीवित ही रहने वाली है।
मनुष्य ने जिस कर्त्तव्य का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लिया है, उसे वह नहीं कर रहा है। और जब नहीं कर रहा है, तो उसके मन में भय है कि कोई अधिकारी देख न ले, अन्यथा मेरी आजीविका को ठेस पहुँचेगी। इस भय से वह काम करने लगता है। इसका अर्थ यह है कि लोग जीवन से समझौता नहीं कर रहे हैं, आँखों से समझौता कर रहे हैं। क्या इस ढंग से जीवन में समरसता आ सकती है ? और जीवन का रस क्या जीवन में पैदा कर सकता है ? नहीं ।
प्रत्येक मनुष्य को अपना कर्त्तव्य, कर्तव्य भाव से, स्वतः ही पूर्ण करना चाहिए। किसी की आँखें हमारी ओर घूर रही हैं या नहीं, यह देखने की उसे आवश्यकता ही क्या है ?
भगवान् महावीर का पवित्र सन्देश है कि मनुष्य अपने-आप में सरल बन जाए और द्वैत - बुद्धि-मन, वचन, काया की वक्रता - नहीं रखे। हर प्रसंग पर दूसरों की आँखों से अपने कर्त्तव्य को नापने की कोशिश न करे। जो इस ढंग से काम नहीं कर रहा है और केवल भय से प्रेरित होकर हाथ-पाँव हिला रहा है, वह आतंक में काम कर • रहा है। ऐसे काम करने वाले के कार्य में सुन्दरता नहीं पैदा हो सकती, महत्त्वपूर्ण प्रेरणा नहीं जाग सकती ।
मनुष्य जहाँ कहीं भी हो और जो भी कार्य करे, ऊपर की निगरानी की अपेक्षा न निगरानी अपने-आप में होनी चाहिए। मनुष्य स्वयं अपनी निगरानी करे, स्वयं
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