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साधना का मूल स्रोत
मनुष्य के जीवन में सत्य का कितना महत्त्वपूर्ण स्थान है, यह हमारे लिए एक विचारणीय चीज है। यों तो प्रत्येक आत्मा अनन्त गुणों का भंडार है और अच्छे से
अच्छे अनन्त गुण आत्मा में रहे हुए हैं । हम अपना जीवन, साधना के द्वारा अनन्त गुण वाला बना सकते हैं। जैन धर्म ने आत्मा को परमात्मा बन सकने की सर्वोपरि महत्त्वपूर्ण प्रेरणा दी है । किन्तु प्रत्येक गुण जब अनन्त रूप धारण करता है, तभी आत्मा, परमात्मा की उत्कृष्ट भूमिका में प्रवेश करती है।
तो क्या यह संभव है कि आत्मा के अनन्त गुणों में से एक गुण तो अनन्त-रूप बन जाए ओर दूसरे न बनें ? केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन अनन्त हैं और चारित्र भी अनन्त है, शक्ति भी अनन्त है। इस रूप में हम अनन्त-चतुष्टय को पहचानते हैं । मगर प्रश्न यह है कि आत्मा जब मोक्ष प्राप्त कर लेता है, तो उसमें क्या अनन्त-चतुष्टय ही रहता है ? और दूसरे गुण अनन्त नहीं रहते हैं ? अथवा ऐसा है कि जब तक सभी गुण अनन्त न बन जाएँ, तब तक मोक्ष-दशा प्राप्त हो ही नहीं सकती? अनन्त गुणों की अनन्तता के बिना परमात्म-पद प्राप्त हो ही नहीं सकता?
हमारे जीवन की दौड़, क्षुद्र और गिरे हुए जीवन से उस विशाल और अनन्त जीवन की ओर है, जहाँ कि प्रत्येक गुण अनन्त हो जाता है और आगे विकास के लिए कोई अवकाश नहीं रह जाता है । एक कवि ने कहा है
इस पथ का उद्देश्य नहीं है, श्रान्ति-भवन में टिक रहना, किन्तु पहुँचना उस सीमा तक, जिसके आगे राह नहीं।
-जयशंकर प्रसाद जिस मार्ग पर हम चल रहे हैं और जिस मार्ग पर हमारी साधना चल रही है, उसके बीच में ही हमें नहीं रूक जाना है, अपनी साधना को बीच में ही नहीं समाप्त कर देना है। हमें अन्तिम स्थिति पर पहुँचना है, उस स्थिति पर कि जहाँ आगे राह नहीं है। जब राह ही नहीं है, तो आगे कैसे चला जाए? विकास की पराकाष्ठा के आगे कोई.
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