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११० / सत्य दर्शन
वे पैंसिल उठाएँगे तो पूँजनी से पूँजकर उठाएँगे और कागज लेंगे तो बिना पूँजे न लेंगे। बेचारे श्रावक पूछते हैं कि इस पैंसिल को पूँजने की क्या आवश्यकता है ? तो उत्तर मिलता है- 'जैन मारग घणो झीणो है, साधु को बिना पूँजे कोई चीज काम में नहीं लेनी चाहिए ।'
भगवान् महावीर ने तो कहा है कि पहले प्रतिलेखना है और फिर प्रमार्जना है। पहले भली-भाँति देखना चाहिए और देखने के बाद उसमें कोई जीव-जन्तु हो तो उसे पूँजना चाहिए । जब देखने के लिए आँखें हैं, तो अनावश्यक रूप से, दिन-भर ओघा घिसते रहने का क्या अर्थ है ? पैंसिल को पूँजने के लिए पूँजनी उठाई है, तो पूँजनी को आखिर किससे पूँजोगे ? उसको बिना पूँजे कैसे उठा लोगे ?
ऐसी बातें ऊपर-ऊपर से भले ही अच्छी मालूम होती हों, मगर कभी-कभी यह मनुष्य को छलने का काम करती हैं। देखने वाला अटपटा जाता है कि यह क्या हो रहा है?
अभिप्राय यह है कि दंभी अनावश्यक विवेक दिखलाता है और जब वह अनावश्यक विवेक दिखलाता है, तो देखने वाले और सुनने वाले समझ जाते हैं कि यहाँ जीवन में दंभ चल रहा है। अतएव मैं कहता हूँ कि हमारे आध्यात्मिक जीवन में सरलता, सहजता, उच्च श्रेणी का ज्ञान और प्रामाणिकता होनी चाहिए । हम अपने जीवन के प्रति ईमानदार बन जाएँ और अपनी साधना के प्रति स्वयं वफादार बन जाएँ। जब तक वफादारी नहीं आती और यह सब खटराग चल रहे हैं, तब तक जीवन के विकास की संभावना नहीं की जा सकती । साधारण तपस्या की बात जाने दीजिए, भगवान् महावीर ने तो यहाँ तक कहा है कि जो साधक अज्ञान में है, जिसे जीवन का सत्य नहीं मिला है, सत्य दृष्टिकोण नहीं मिला है और साई के ऊपर जिसकी दृष्टि केन्द्रित नहीं हुई है, वह घोरतर तपश्चरण करके भी जीवन - विकास की पहली भूमिका नहीं पा सकता ।
मासे - मासे तु जो बाले, कुसग्गेणं तु भुंजए । न सो सुक्खायधम्मस्य, कलं अग्घइ सोलसिं ॥
- उत्तराध्ययन, ९
"ऐसा अज्ञान व्यक्ति यदि महीने - महीने की तपस्या करे और तपस्या के बाद, पारणे के दिन केवल तिनके की नोंक के बराबर अन्न-जल ग्रहण करे और फिर तपस्या
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