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सत्य दर्शन / १०७
राह नहीं हो सकती। इस प्रकार विकास की चरम सीमा जब प्राप्त हो जाती है, पूर्णता के प्रांगण में जीव पहुँच जाता है, तभी वह 'मुक्त' कहलाता है।
अब हमारे सामने यह महत्त्वपूर्ण प्रश्न उपस्थित है कि आत्मा का प्रत्येक गुण किस प्रकार अनन्त बनाया जा सकता है ? इस प्रश्न के उत्तर में शास्त्रकारों ने कहा है कि अहिंसा और सत्य की साधना के द्वारा आत्मा के सभी गुण अनन्त बनाए जा सकते
__यह आवश्यक नहीं कि प्रत्येक गुण को अनन्त रूप प्रदान करने के लिए अलग-अलग साधना की जाए, अलग-अलग दौड़ लगाई जाए । आत्मा के गुण अनन्त हैं और प्राथमिक स्थिति में उन सब का हमें पता भी नहीं होता। जब पता ही नहीं होता, तो उनको विकसित कैसे किया जा सकता है ? किन्तु जिन गुणों की हमें जानकारी है और जिनसे हमें अपने जीवन में प्रकाश मिल रहा है, उनको ही लेकर हम अपनी साधना शुरू कर देंगे, तो एक दिन ऐसा होगा कि वे गुण अनन्त बन जाएँगे और साथ ही दूसरे गुण भी अनन्त बन जाएँगे।
इस दृष्टिकोण से सत्य को देखें, तो पता चलेगा कि हमारे साधना-जीवन में उसका कितना महत्त्वपूर्ण स्थान है ? अगर हम सत्य को पूर्णता प्रदान कर सकें, तो समग्र जीवन को ही पूर्णता प्रदान कर सकते हैं । प्रामाणिकता एवं सत्य :
आचार्यों ने कहा है-एक मनुष्य कितना ही सुन्दर है, सुडौल है और रंग-रूप में अच्छा है, किन्तु उसके चेहरे पर नाक नहीं है तो क्या वह सुन्दर समझा जाएगा? नहीं, नाक नहीं है तो उसके रूप-रंग का कोई महत्त्व नहीं है। नाक की नियत जगह पर दृष्टि पड़ते ही सारी घृणा बरसने लगती है। एकमात्र नाक के न रहने के कारण ही कोई बखान करने लायक चीज नहीं रह जाती है। ___इसी प्रकार मनुष्य के जीवन में चाहे कितने ही गुण भरे हुए हों, यदि सत्य का गुण नहीं है, जो कि सारे सौन्दर्य को जगमगाने के लिए सामर्थ्य रखता है, तो वह जीवन बिना नाक का शरीर है। सत्य के अभाव में जीवन का सौन्दर्य खिल ही नहीं सकता।
एक श्रावक कठोर साधना में से अपना जीवन गुजार रहा है और सामायिक, संवर, पौषध और तपस्या भी करता है, किन्तु उसके जीवन-व्यवहार को मालूम करें
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