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७६ / सत्य दर्शन
'लगा और कहने लगा-" भगवान् ! तब तो चौरासी हजार वर्षों की क्या गिनती है इतना समय तो चुटकियों में पूरा होता है । "
इतने विवेचन से आप समझ सकेंगे कि सम्यग्दृष्टि की कैसी दृष्टि होती है। यह संसार के सुख-दुःख को समान भाव से ग्रहण करता है। सुख में हर्ष और दुःख में विषाद उसे स्पर्श नहीं करता । सुख और दुःख को वह आत्म शुद्धि का साधन मात्र समझता है और अपने भाव के द्वारा वास्तव में वह उन्हें आत्मशुद्धि का साधन ही बना
लेता है। उसे सुख का लोभ नहीं, दुःख में क्षोभ नहीं । निरन्तर आत्मा को बन्धनहीन बनाना ही उसका एकमात्र लक्ष्य है। सम्यग्दृष्टि की यह दृष्टि ही सत्य की दृष्टि है। इसी दृष्टि से जो सत्य के पथ पर चलता है, वही वास्तव में सत्य के पथ का पथिक है। वही परमं कल्याण-रूप निर्वाण का भागी होता है।
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