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८२/ सत्य दर्शन तरह सच्चे भी बने रहें. यह धारणा मन में से निकाल दो। नहीं निकालोगे, तो सत्य की उपासना नहीं कर सकोगे। एक मन में दो परस्पर विरोधी रूप नहीं हो सकते। मन में चाहे सत्य को बिठलाओ या असत्य को। दोनों एक साथ नहीं बैठे सकते। एक ही सिंहासन पर राम और रावण-दोनों कैसे बैठ सकते हैं ?
क्चन एक ऐसी चीज है और शब्दों का व्यवहार ऐसा है कि वहाँ आप मनचाहा ढंग बना सकते हैं. गली तलाश कर सकते हैं। जिसकी जेब में सेव पड़ा है, वह कहता है-मैंने सेव नहीं उठाया और जिसने उठाया है, वह कहता है-मेरे पास सेव नहीं है। यह गली निकालना है। इस प्रकार गली तलाश करने वाला न इधर का और न उधर का रहता है। यह सत्य की उपासना नहीं है । यह तो सत्य का उपहास है या आत्म-वचना है। ऐसा करने वाला दूसरों को धोखा दे सकता है और कदाचित नहीं भी दे सकता, परन्तु स्वयं धोखा अवश्य खाता है। वह झूठ-मूठ अपने मन को बहलाता है। वह आत्म-हिंसा करता है। वह अधंकार में भटक रहा है। असत्य को असत्य मान कर उसका सेवन करने वाला, संभव है शीघ्र सत्य के मार्ग पर आ जाए, किन्तु सत्य का ढोंग करने वाला सत्य की राह पर नहीं आ सकता है। उसका मिथ्या मनस्तोष उसके चित्त में डंक नहीं लगने देता और वह धृष्ट होकर नीचे ही नीचे गिरता जाता है ।
हम सच्चा सत्य उसी को कहते हैं जो क्रोध, मान, माया, लोभ और वासनाओं से प्रभावित नहीं होता, इधर-उधर की गली तलाश नहीं करता और अंधेरे में छिपने की कोशिश भी नहीं करता और सत्य के एकमात्र प्रकाश को ही अपना पथ-प्रदर्शक बनाता है।
जहाँ मन का सत्य होता है, वहाँ गलियाँ नहीं मिलेंगी और जहाँ वाणी का ही सत्य होगा, वहाँ गलियाँ मिल जाएँगी। इसीलिए मैंने कहा है-सत्य, सत्य के लिए ही होना चाहिए।
अभिप्राय यह है कि अगर सत्य की उपासना करनी है, जीवन में सत्य का आचरण करना है, तो फिर यह नहीं सोचना है कि संसार क्या कहता है ? संसार की क्या स्थितियाँ हैं ? और लोग हमारे विरोधी बन रहे हैं या मित्र बन रहे हैं ? फिर तो सत्य का जो कठोर रूप है, वह जीवन में आ ही जाना चाहिए। इसके विपरीत, यदि सत्य के रास्ते पर समझौता हो जाए और जनता के गलत दृष्टिकोण से प्रभावित होकर
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