________________
सत्य दर्शन / ८९ अब भी कहीं नहीं गया है। फिर इस शरीर को जलाने के लिए यह उपक्रम क्यों किया रहा है ? अगर पति की आत्मा को अपना पति समझती हो, तो उसके मरने की कल्पना करना ही भ्रमपूर्ण है। वह तो अजर और अमर है। उसने तो चोला बदल लिया है और कहीं दूसरे जीवन में चला गया है। उसकी मृत्यु हो ही नहीं सकती। ऐसी स्थिति में इस शरीर के पीछे क्यों मरने को आई हो ?
इस प्रकार की शिक्षा से नारी के जीवन की रक्षा हुई और उस सती ने बाद में बड़ा नाम कमाया। उसको सुसराल में भी धन और वैभव मिला था और अपने बाप के घर भी वह सोने के पालने में झूली थी। उसने अपना सम्पूर्ण जीवन सामाजिक सेवा के हेतु समर्पित कर दिया। संत आनन्दघन की कविता का एक भाग है:
-
"कोई कन्त कारण काठ भक्षण करे, मलशूं कंतने धाय । ए मेलो नवि कइये, संभवे मेलो ठाय न ठाय ॥ ऋषभ जिनेश्वर प्रीतम माहरो और न चाहूँ रे कन्त ॥"
जो बहिन पति से मिलने के लिए उसकी चिता पर जल मरती है, क्या पति से उसका मिलाप हो जाता है ? क्या वह अपनी आत्मा को पवित्र बना रही है ? नहीं ।
अभिप्राय यह है कि हम अपने जीवन के आदर्श को महत्त्व नहीं देते, अपने कर्तव्य को महत्त्व नहीं देते और हमारे जीवन के सामने समाज की जो समस्याएँ उपस्थित हैं, उनको भी महत्त्व नहीं देते ।
वे मर जाते हैं, किन्तु उनके पीछे ये रो-रोकर, जिन्दगी को घुला - घुला कर समाप्त कर देंगी ।
जिस समाज में मरने वाले के पीछे परिवार की नारियाँ रोती हैं, रिवाजी तौर पर उन्हें रोना पड़ता है और रोने जाना पड़ता है, मानना चाहिए कि उस समाज में अभी पर्याप्त विवेक जागृत नहीं हुआ है। जहाँ हम रोने जाते हैं वहाँ रोने के बदलें उस परिवार की सेवा करने क्यों न जाएँ ? रोने के लिए जाने वाले शोकाकुल परिवार को किसी काम-काज में नहीं लगने देते और उनकी शोकाग्नि को हवा देकर प्रज्ज्वलित करते हैं ।
आप और दूसरे सभी लोग रोने के विषय में कह तो देते हैं कि यह गलत चीज है
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org