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८८ / सत्य दर्शन
स्त्री-मैं मरना चाहती हूँ, इसलिए कि परलोक में मुझे पति मिल जाएगे । सन्त-वे कहाँ गए हैं और किस रूप में हैं, यह तुम्हें मालूम है ? स्त्री- - यह तो नहीं ।
सन्त - तो फिर कैसे उनके पास पहुँचोगी ?
सन्त फिर कहने लगे- मृतात्मा का स्थान निश्चित् नहीं है। यह जगत् बहुत विशाल है और असंख्य असंख्य जीवों की योनियाँ एवं अवस्थाएँ हैं। मरने के पश्चात् कौन जीव किस लोक में जाता है और किस योनि में जन्म लेता है, यह तुम्हें और हमें भी नहीं मालूम है। हम जितना कुछ जानते हैं, उसके आधार पर यही कह सकते हैं कि जीव अपने-अपने कर्मों और संस्कारों के अनुरूप ही अगली स्थिति प्राप्त करता है। जिसका पिछला जीवन पवित्र और सत्संस्कारों के सौरभ से सुरभित रहा है, वह आगामी जीवन उच्च श्रेणी का प्राप्त करता है। उसके जीवन की ऊँचाई और बढ़ • जाती है । और हम भगवान् महावीर के कथन के आधार पर यह भी जानते हैं कि आत्म-हत्या करना बड़ा भारी पाप है। आत्म हत्या करके मरने वाला कभी ऊँची स्थिति, उच्चतर जीवन नहीं पा सकता। बहिन, तुम आत्म हत्या कर रही हो, अतएव ऊँची स्थिति नहीं पा सकोगी। ऐसा करके तो नरक ही पाया जाता है। अगर तुम्हारा विश्वास है कि तुम्हारे पति ने भी नारकीय जीवन प्राप्त किया है, तो बात दूसरी है। फिर तो तुम भी नरक की राह पर जा सकती हो। मगर नरक में जाकर मिलने का अर्थ ही क्या है ? और फिर नरक भी कहाँ एक ही है ?
सन्त कहते गए-बहिन, जरा गहराई से सोचो। अपने अन्तःकरण से मोह के आवेश को निकाल दो। जन-कल्याण की दृष्टि से अपने जीवन का उपयोग करो । तुम्हें इतना सुन्दर मनुष्य का जीवन मिल गया है, हीरा मिल गया है, इसे अपने हाथों बर्बाद मत करो। इसे सुरक्षित रखो। इसे बनाए रखकर समाज और राष्ट्र के सामने अपने उच्च चरित्र के द्वारा ऊँचा आदर्श स्थापित करो। पति के शव के साथ जल-मर कर वह कार्य नहीं कर सकोगी, किन्तु जिन्दा रहकर कर सकोगी और पति के नाम को ऊँचा उठा सकोगी ।
हि ! क्या तुमने विचार किया है कि तुम्हारा पति कौन था ? पति का शरीर या पति की आत्मा ? शरीर को ही पति समझती हो, तो वह तो अब भी मौजूद है। शरीर तो
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