________________
६४/ सत्य दर्शन गुणस्थान में जिस आत्मा ने क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त किया है, उसके अनादि काल से चले आते हुए मिथ्या-दर्शन के बन्धन अनन्त-अनन्त काल के लिए सदा-सर्वदा के लिए टूट जाते हैं । इस प्रकार उस आत्मा को मिथ्यात्व से मुक्ति मिल जाती है। क्षायिक भाव ही मोक्ष कहलाते हैं और ज्यों-ज्यों वे प्राप्त होते जाते हैं, मोक्ष प्राप्त होता जाता है। क्षायिक भावों की प्राप्ति क्रम से होती है। चौथे गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दर्शन से क्षायिक-भाव आता है और आगे चलकर तेरहवें गुणस्थान में चार कर्मों का नाश हो जाने पर क्षायिक भाव आ जाते हैं । शेष चार-अघातिक कर्म बने रहते हैं और फिर चौदहवें गुणस्थान में उनका भी क्षय कर दिया जाता है। तब उन कर्मों के क्षय से भी क्षायिक भाव आते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि आत्मा में जो विकार थे, उन्हें नष्ट कर दिया गया और उनके पुनः पैदा होने की गुंजाइश नहीं रही। इस प्रकार जीव ज्यों-ज्यों क्षायिक भाव प्राप्त करता है, उसके विकार-बन्धन नष्ट होते चले जाते हैं और ज्यों-ज्यों विकार-बन्धन नष्ट होते जाते हैं, त्यों-त्यों वह मुक्ति प्राप्त करता जाता है। क्रमशः आगे बढ़ते-बढ़ते जब आत्मा आध्यात्मिक विकास की चरम भूमिका पर चौदहवें गुणस्थान में पहुँचता है, तो उसके समस्त बन्धनों और विकारों का अन्त हो जाता है, और तब सम्पूर्ण मोक्ष का अधिकारी हो जाता है। इस प्रकार आत्मा का पूर्ण रूप से निर्विकार होना-अपने शुद्ध स्वभाव में आ जाना—चरम मोक्ष है। ___ कहा जाता है-आत्मा मोक्ष में जाती है, अमुक आत्मा अमुक समय में मोक्ष में पहुँच गई। परन्तु यह भाषा, भाषा ही है। मैं पूछता हूँ कि आत्मा जब सिद्ध-शिला पर या लोकाग्र पर पहुँची, तब उसे मोक्ष मिला या जब मोक्ष प्राप्त हो गया, तब वह पहुँची?
आत्मा जब समस्त बंधनों से छुटकारा पा चुकी, तो उसने इस शरीर को त्याग कर अपनी यात्रा की और जब तक वह उस स्थान तक नहीं पहुँच जाती, तब तक आप उसका मोक्ष नहीं मानते । इस प्रकार एक खास स्थान का नाम मोक्ष समझ लिया गया है । परन्तु ऐसी बात नहीं है । मोक्ष कोई स्थान नहीं, वह तो आत्मा की निर्विकार, निरंजन, निष्कलंक और निष्कर्म अवस्था मात्र है । कहा भी है
'सकल करम ते रहित अवस्था,
सो सिव थिर सुखकारी ।' मोक्ष यदि कहीं होता भी है, तो यहाँ ही होता है। भगवान् महावीर का निवार्ण हुआ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org