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सत्य दर्शन/७१ पुराने कर्मों को, पूर्वसंचित वासनाओं को, पुरातन बन्धनों को अपने ज्ञान, ध्यान, विचार और साधना के बल से नष्ट करो। उनके नष्ट हो जाने पर जब तुम अपनी गुफा में गर्जना करोगे, दहाड़ोगे तो उस ओर आने वाले विकार-रूपी श्वापद ठिठक जाएँगे। वे तुम्हारी दहाड़ के सामने नहीं टिक सकेंगे। तब आगे बँधने वाले काँक्री प्रक्रिया का भी अन्त आ जाएगा।
कुछ कर्म प्रारब्ध होते हैं । जिन्हें वर्तमान में भोगा जा रहा है, वे प्रारब्ध कर्म कहलाते हैं। वे थोड़े होते हैं और वे लोड़े नहीं जा सकते। उन्हें भोगना पड़ता है, परन्तु उनको भोगना ही उनको तोड़ना है।
वृक्ष पर फल लगा है। उसे कच्चा भी तोड़ा जा सकता है और यदि कच्चा न तोड़ा गया, तो पक कर आप-ही-आप टूट जाता है। टूटना तो उसके भाग्य में लिखा ही है। इसी प्रकार कर्म भी दोनों प्रकार से तोड़े जाते हैं । ज्ञान, ध्यान और तपस्या के बल से भी तोड़े जाते हैं और भोगने से भी तोड़े जाते हैं।
इस प्रकार पहले के कर्मों को ज्ञान-ध्यान से तोड़ दो, आगे के कमों में फंसो मत और निकाचित कर्मों को भोग लो, बस परब्रह्म का रूप प्राथा करने का यही एक मार्ग है, दूसरा कोई मार्ग नहीं है।
इस दृष्टिकोण से जैन-धर्म के आध्यात्मिक जीवन पर हम विचार करते हैं, तो पाते हैं कि वहाँ प्रत्येक आत्मा की पवित्रता में विश्वास है। जन-धर्म की मान्यता है कि प्रत्येक भव्य आत्मा पवित्रता को प्राप्त करने में समर्थ है, यदि वह पवित्रता के पथ पर चले।
जब यह स्थिति हमारे सामने स्पष्ट हो जाती है, तो संसार की कि आत्माओं के लिए हमारे मन में घृणा और द्वेष का भाव भरा हुआ है, वह मिट जाता है। हम यह समझ जाते हैं कि जिसके अन्दर जो बुराई है, वह यदि निकाल दी जाए. तो फिर वह चीज काम आने के लिए ही है, नष्ट करने के लिए नहीं है। ऐसी समझ आ जाने पर हम सब के प्रति समभाव रखकर चल सकेंगे। सिक्के बिखरे पड़े हैं :
एक बौद्ध भिक्षु चले जा रहे थे। उनसे किसी ने पूछा-"आप जा तो रहे हैं, पर आपके खाने-पीने का आगे क्या प्रबन्ध है ? कुछ रुपये, पैसे, सिक्के पास है क्या?"
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