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६६ / सत्य दर्शन
जाने का नहीं है ? उसकी प्रत्येक चेष्टा अपनी पवित्रता की ओर ही हो रही है ? अथवा उसका यह विश्वास है कि आत्माएँ पवित्रता की ओर न चलकर अपवित्रता की ओर जा रही हैं ?
. इस विषय में दो मन्तव्य हैं। दार्शनिक क्षेत्र में जाते हैं, तो दोनों तरह के विचार उपलब्ध होते हैं। एक ओर यह माना जाता है कि प्रत्येक आत्मा जो भव्यात्मा है, प्रगति की ओर है, विकास की ओर है। दूसरी तरफ यह भी समझा जाता है कि प्रत्येक आत्मा अपवित्रता की ओर जा रही है और दुर्गुणों की ओर जा रही है। दुर्गुणों की ओर जाना उसका सहज भाव बन गया है और सद्गुणों की ओर जाना कठिन मार्ग है। किन्तु जैनधर्म का कहना है कि प्रत्येक आत्मा का सद्गुणों की ओर जाना सहज भाव है और आत्मा का दुर्गुणों की तरफ जाना कठिन मार्ग है।
"ऊर्ध्वगौरवधर्माणो जीवाः"
-तत्त्वार्थ-भाष्य
इसका अर्थ यह है कि कोई भी आत्मा कहीं भी गिर कर चल रही है, मान लीजिए के नरक में चली गई है, तो ज्यों ही वह नरक में गई कि उसी क्षण उसका पवित्र होना शुरू हो जाता है। नरक में गई हुई आत्माओं में से जिसने अभी-अभी नरक में जन्म लिया है, वह लेश्या के लिहाज से अधिक अपवित्र है और कर्मों के दृष्टिकोण सें अधिक भारी है । उसकी लेश्या और उसके अध्यवसाय अधिक तीव्र हैं, परन्तु ज्यों-ज्यों वह नारकी आत्मा, नरक में अपना जीवन गुजारता जाता है और गुजारते - गुजारते लम्बा समय बिता देता है, वह कर्मों से हल्का-हल्का होता जाता है। इस प्रकार प्रतिक्षण निरन्तर नारकी जीव कर्मों के भार से हल्का होता जाता है। तात्पर्य यह हुआ कि नरक के योग्य बन्धनों में जकड़ कर आत्मा यद्यपि नरक में गई है और नीचे दब गई, फिर भी वह ऊपर आने के लिए प्रगति करने लगती है। आत्मा ज्यों ही नरक में पहुँची और एक समय व्यतीत हुआ कि उसमें पवित्रता का प्रार्दुभाव होने लगा, एक समय भी वह ज्यों की त्यों नहीं रहती। दूसरे और तीसरे क्षण में वह कर्म-भोग भोगती हुई अपने विकास की ओर चल पड़ती है। यही कारण है कि आत्मा एक बार नरक में पहुँच कर भी ऊपर आ जाती है। अन्यथा एक बार नरक में पड़ जाने पर फिर कभी निकलना संभव ही न होता, नारकी जीव अनन्त - अनन्त काल तक नारकीय
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