________________
६८ / सत्य दर्शन
साधु हो या गृहस्थ, प्रत्येक जैन को एक महत्त्वपूर्ण प्रेरणा लेनी है। वह यह कि- "जो भी तकलीफें और कष्ट हैं, सब-के-सब मेरी आत्मा की पवित्रता के लिए हैं। इन कष्टों की कृपा से मेरी अपवित्रता धुल रही है और मैं निरन्तर पवित्र होता जा रहा हूँ ।"
"हे साधक, जब तुझ पर आपत्ति का आक्रमण हो, तब तू समभाव धारण करके रह। रो मत, विलाप मत कर। रोने और विलाप करने से आपत्ति का अन्त नहीं होगा, वह और अधिक भीषण बन जाएगी और भविष्य की आपत्तियों का अंकुर रोप जाएगी। तेरे नेत्रों का पानी उस अंकुर को पोषण देगा हरा-भरा बना देगा। इसलिए तू आपत्ति के समय शोक और विलाप त्याग कर समभाव धारण कर ले। समझ ले कि यह दुःख मेरे दुःख को कम कर रहा है। मैं दुःख से छुटकारा पा रहा हूँ ।".
सुख के विषय में भी यही बात है। जिसे सुख की सामग्री मिली है और जो सुख भोग रहा है, उसे भी समभाव धारण करके ही भोगना चाहिए। भगवान शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरनाथ, यह तीनों तीर्थंकर चक्रवर्ती थे। यदि वे चक्रवर्ती न होकर सीधे तीर्थंकर बनना चाहते, तो क्या बन सकते थे? नहीं । आखिर उन्होंने पहले पुण्यकर्मों का बन्ध किया था और उन कर्मों से उनकी आत्मा भारी हो रहीं थी । उसे हल्का बनाए बिना सिद्धि प्राप्त नहीं की जा सकती थी ।
तो सम्यग्दृष्टि हर हालत में समभाव का ही आश्रय लेता है। वह दःख भोगता है, तो भी समभाव से और सुख भोगता है, तो भी समभाव से ही। दुःख की तरह सुख को भी वह भार समझता है और उसे भी समभाव से भोगकर उसके भार को उतार फेंकना चाहता है। सम्यग्दृष्टि भली-भाँति समझता है कि जैसे पापकर्म आत्मा की शुद्धि के मार्ग में बाधक है, उसी प्रकार पुण्यकर्म भी अन्ततः बाधक ही है। यह बात दूसरी है कि पुण्यकर्म से आत्मशुद्धि की प्रेरणा प्राप्त होती है, परन्तु आखिर तो कर्ममात्र से छुटकारा पाए बिना पूर्ण आत्म-शुद्धि नहीं हो सकती ।
तीर्थंकर एवं चक्रवर्ती :
उक्त तीनों तीर्थंकर चक्रवर्ती हुए तो क्यों हुए ? वे अपने भोगावली कर्मों को भोगने के लिए चक्रवर्ती हुए। उन्होंने चक्रवर्ती के सर्वोत्कृष्ट मानवीय सुखों को इसी दृष्टि से भोगा कि हम कर्मभार को हल्का कर रहे हैं। आत्मा की पवित्रता का यही मार्ग
www.jainelibrary.org
Jain Education International
For Private & Personal Use Only