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१४/ सत्य दर्शन
__हाँ, तो वे सन्त थे मनुष्य को परखने वाले। उन्होंने कहा-"चोरी नहीं छोड़ सकते हो तो दूसरी चीज तो छोड़ सकते हो?"
चोर ने उत्साह के साथ कहा-"हाँ, दूसरी चीज छोड़ सकता हूँ।"
सन्त बोले-"अच्छा और चीज छोड़ो। चोरी छोड़ने के लिए ही हमारा आग्रह नहीं है । उसे नहीं छोड़ सकते तो न सही ! देखो, तुमने बहुत सचाई के साथ और ईमानदारी के साथ जीवन का बहीखाता और जीवन का वह पृष्ठ जिसमें चोरी लिखी जाती है.खुला रख छोड़ा है, मैं चाहता हूँ कि तुम उसी नियम को ग्रहण कर लो। देखो, सत्य बोला करो, झूठ मत बोलना ।"
चोर उन सन्त की वाणी से इतना प्रभावित हुआ कि वह कहने लगा-'अच्छा मैं सत्य बोलने का नियम ले लूँगा, आप उसे दिला दीजिए।" __सन्त ने नियम दिला दिया और कहा देखो, नियम ले रहे हो । नियम ले लेना सहज है, किन्तु उसका पालन करना कठिन बात है। नियम पालने के लिए भी सत्य की जरूरत है। ग्रहण की हुई प्रतिज्ञाओं के पीछे सत्य का बल होता है, तभी वह निभती हैं। यदि सत्य न हुआ तो कोई भी प्रतिज्ञा नहीं निभ सकती।"
चोर ने कहा-"नहीं, महाराज ! मैं प्रण कर रहा हूँ और प्राणों के समान उसकी रक्षा करूँगा।"
इस प्रकार प्रतिज्ञा लेकर चोर अपने घर चला गया। वह चला तो गया पर प्रभु के चरणों में बैठ कर उसने जो वाणी सुनी थी, उससे उसके मन में एक लहर पैदा हो गई। घर गया तो देखा कि अभी मसाला मौजूद है, फिर क्यों चोरी करूँ? क्यों किसी को पीड़ा पहुँचाऊँ ? जब तक रहेगा तब तक खाऊँगा, जब नहीं रहेगा तो फिर चोरी की बात सोचूँगा।
इस तरह सोचकर वह घर में पड़े समान को खाता रहा । एक दिन जब वह समाप्त हो गया तो विचार किया-चलना चाहिए। इधर-उधर चलने का विचार हो गया, तो मन्थन शुरू हुआ।
महापुरुष मनुष्य के अन्तःकरण में प्रकाश की एक छोटी-सी किरण डाल देते हैं और वह धीरे-धीरे चुपचाप विराट रूप ग्रहण कर लेती है । पृथ्वी पर एक छोटा-सा बीज फैंक दिया जाता है, तो वह धीरे-धीरे पनपता हुआ एक दिन महान वक्ष बन जाता
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