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सत्य दर्शन/५१
गंगा बह रही है। इधर राजा दशार्णभद्र को भक्ति गलत रूप में घेर कर खड़ी हो गई
यह सब सूचना इन्द्र को मिल जाती है। इन्द्र सोचता है-"राजा के मन में भगवान् के प्रति भक्ति तो जागी है, किन्तु उस भक्ति के पीछे जो अहंकार आ रहा है, वह जहर आ रहा है। वह जहर कहीं अमृत में घर न कर ले, अतएव राजा को और राजा के बहाने दुनिया को सच्ची राह बतानी ही चाहिए। ऐसा सोचकर इन्द्र ने भी प्रभु के चरणों में चलने का विचार कर लिया ।
इधर से राजा अभूतपूर्व तैयारी करके रवाना हुआ । वह अपने उस वैभव को देखकर मुग्ध हो रहा है । वह अपने ऐश्वर्य की चमक को देखकर स्वयं ही चकाचौंध-सा हो गया । सोचने लगा-"मैंने जो सोचा था, पूरा हो गया ।"
किन्तु यह क्या ? सामने से इन्द्र का सजा हुआ हाथी आ रहा है ! दैवी वैभव का यह असीम सागर उछलता, उमड़ता आ रहा है। देवों के वैभव का क्या पूछना है ? मन में आया, वैसा ही वैभव बनाते उन्हे देर नहीं लगती। राजा जीता, इन्द्र हारा :
हाँ, तो वह अलौकिक स्वर्गीय वैभव जब राजा दशार्णभद्र के सामने आया, तो उसकी सारी तैयारियाँ फीकी पड़ने लगीं। उसे ऐसा प्रतीत होने लगा, मानो यह किसी दरिद्र और नगण्य व्यक्ति की तैयारी है। वह सोचने लगा-"यह कौन आ गया ?" इतने ही में देवताओं की आवाज आने लगी-"हम तो बड़ी सवारी के आगे-आगे ध्वजा उठाने वालों में से हैं । हम तो खाली ढोल पीटने वाले हैं। हम तो किसी गिनती में ही नहीं हैं । स्वर्गाधिपति देवराज इन्द्र की सवारी तो पीछे आ रही है।" - राजा दशार्णभद्र यह सब देख-सुनकर चकित रह गया । मन ही मन सोचने लगा-"तुझे आज चुनौती मिली है। यह इन्द्र नहीं आया, बल्कि तेरे अहंकार को चूर करने के लिए चुनौती आई है। जब इन्द्र की सवारी का साधारण रूप यह है, तो उसके पीछे क्या रूप होगा ?" __राजा आगे बढ़ा और यथास्थान पहुँच गया। राजा जब प्रभु के चरणों में पहुचा, तो उसके दिल के टुकड़े-टुकड़े हो गए। उस क्षत्रिय का मान भंग हो गया था और उसे ऐसा जान पड़ता था, मानो खून सूख गया है। मगर अन्धकार में गिरते-गिरते भी एक
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