________________
सत्य दर्शन/५३ उनका ओजपूर्ण मुखमण्डल मानो इन्द्र के वैभव का उपहास कर रहा है। सत्य का विमल आलोक उनके चारों और प्रसृत हो रहा है और इन्द्र का मुख उनके आगे ऐसा जान पड़ता है, जैसे सूर्योदय के पश्चात् चन्द्रमा ।
इन्द्र आगे बढ़ा और मुनि दशार्णभद्र के चरणों में नत-मस्तक हो गया । बोला-"आप जिस रूप को लेकर चले थे, उसकी आपने पूर्ण रूप से रक्षा की। संसार के वैभव को इन्द्र चुनौती दे सकता है, मगर इस आध्यात्मिक और सत्य वैभव को चुनौती देने का सामर्थ्य मुझ में नहीं है। मैं इस क्षेत्र में पामर हूँ-आगे नहीं बढ़ सकता मेरी भूमिका वह भूमिका है कि अपने सांसारिक वैभव से दुनिया को नाप लूँ, मगर आध्यात्मिक वैभव से नहीं नाप सकता। आपने जो लोकोत्तर वैभव प्राप्त किया है और जिस उच्चतर भूमिका पर आप विराजमान हो गए हैं, उसके आगे तो इन्द्र चरणों की धूलि लेने को ही है।"
जैन-साहित्य और इतिहास का जो उल्लेख हमारे सामने है और जब कभी हम इस उल्लेख को पढ़ते हैं और सेवा का आदर्श हमारे सामने आता है तो हम समझते हैं कि सत्य का मार्ग वही है, जिस पर दशार्णभद्र चले थे। किन्तु वह मार्ग इतना ऊँचा था कि देवता तो क्या, देवताओं का राजा भी वहाँ लड़खड़ा गया और आगे नहीं आ सका।
जीवन की ये सच्चाईयाँ, वे सच्चाइयाँ हैं कि सहज भाव से निर्णय करने चलें, तो संभव है कि सत्य की रोशनी मिल जाए, अन्यथा देवताओं को भी यह ऊँचाइयाँ और सच्चाइयाँ प्राप्त नहीं हो रही हैं। उन्हें न साधु-जीवन की और न गृहस्थ-जीवन की ही ऊँचाइयाँ प्राप्त होती हैं।
सत्य की उपलब्धि करने के लिए आवश्यक है कि सत्य को सत्य के नाते ही मालूम करें । सम्प्रदाय, पूर्वबद्ध धारणा अथवा अहंकार के नाते सत्य को उपलब्ध करने का प्रयास करना अपने आपको अंधकार में गिराना ही है। अपने स्वार्थ और रूचि के नाते सत्य को नापने का प्रयत्न मत करो। सत्य जब सत्य की दृष्टि से नापा तथा भौंका जाता है, तभी उसकी उपलब्धि होती है। सच्चा सम्यग्दृष्टि सत्य की ही दृष्टि से देखेगा और देखते समय अपनी मान्यता का चश्मा नहीं चढ़ाएगा, बल्कि चढ़े हुए चश्मे को भी उतार देगा। इसके विपरीत जो मनुष्य सत्य मालूम होने पर भी उसे ग्रहण नहीं करता है, उसके लिए सत्य ढक गया है, उसे सत्य की उपलब्धि नहीं होगी। उपनिषद् में कहा है
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org