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सत्य दर्शन / ५५ से कोई भी आत्मा से सम्बन्ध रखने वाली नहीं है। इन्द्रियाँ चैतन्य-जगत् की ओर नहीं जा सकती हैं वे तो जड़-जगत् की ओर ही जाती हैं । जड़-जगत् में जो अनन्त-अनन्त विशेषताएँ है, उनमें से केवल पाँच का अधूरा पता लगा पाती हैं। इसके . अतिरिक्त मनुष्य ने जो कुछ जाना है, मन के द्वारा जाना है। मनुष्य के पास बड़े-बड़े शास्त्रों की अलंकार,न्याय-शास्त्र,खगोल और भूगोल की जो धाराएँ चल रही हैं, वे कहाँ से चल रही हैं । उन सब का स्रोत मनुष्य का मन ही है।
“मनुष्य' का अर्थ क्या है ? किसी ने कहा-मनु के लड़के मनुष्य हैं। किसी ने कुछ और किसी ने कुछ कह दिया । व्याकरण भी ऐसी ही व्युत्पत्तियाँ किया करता है। किन्तु ऐसी बातें गले उतरने वाली नहीं हैं । वास्तव में मनुष्य वह है, जो मनन करता है, चिन्तन करता है
'मननात् मनुष्य:। यास्क ने अपने निघंटु में कहा है
मत्वा कार्याणि सीव्यन्तीति मनुष्याः । . इस प्रकार मनु की बात किनारे रह जाती है । वस्तुतः मनुष्य वह है-जो चिन्तनशील हो, मननशील हो, जो अपने जीवन की गहराई को नापने चले और दूसरों के जीवन की गहराई को भी नापने चले। मनुष्य जड़-जगत् से उस चैतन्य-जगत् की भी थाह लेने चलता है और जहाँ तक उसकी बुद्धि काम देती है, वह संसार के रहस्यों को खोजने चलता है। मनुष्य हार नहीं मानता और संसार का कोना-कोना खोजना चाहता है। __ मनुष्य ऐसी जगह खड़ा है जहाँ एक ओर पशुत्व-भावना और दूसरी ओर देवत्व-भावना आ रही है और जहाँ जीवन का झूला निरन्तर ऊँचा-नीचा होता रहता है। वह संसार का देवता है। ईश्वर होगा, भगर मनुष्य स्वय उसकी सत्ता लेना चाहता है। जैनधर्म तो यही कहने आया है कि- "हे मनुष्य, तू स्वयं ही ईश्वर बन सकता है।"
चलो, और शास्त्रों की खोज करने चलो और उसके द्वारा मनुष्य का कल्याण करने को चलो। परन्तु यदि तुम्हारे भीतर अज्ञान भरा है और तुमने अपना तथा दूसरे का पता नहीं लगा पाया है, तो मनुष्य होकर क्या पाया ? कुछ भी तो नहीं पाया ।
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