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५६ / सत्य दर्शन
हाँ, तो असली चीज यह है कि जो मनन करेगा, वही मनुष्य होगा। मनुष्य को जो भी ज्ञान उपलब्ध है, उसका अधिकांश इन्द्रियों द्वारा नहीं,वरन् मन के द्वारा ही उपलब्ध होता है । सम्यग्दृष्टि को जो ज्ञान होता है, वही ज्ञान कहलाता है और मिथ्यादृष्टि के ज्ञान को, शासन की परम्परा अज्ञान कहती है। __ रूप सामने विद्यमान है । वह काला, पीला या नीला है । उसे मिथ्यादृष्टि भी देखता है और सम्यग्दृष्टि भी देखता है। परन्तु मिथ्यादृष्टि का देखना-अज्ञान, और सम्यग्दृष्टि का देखना सम्यग्ज्ञान है।
यह मतिज्ञान की बात हुई। श्रुतज्ञान या सूत्रज्ञान का भी यही हाल है। सम्यग्दृष्टि का श्रुतज्ञान, ज्ञान कहलाता है और मिथ्यादृष्टि का वही श्रुत-ज्ञान, अज्ञान कहलाता है
अवधिज्ञान भी सम्यग्दृष्टि के लिए अवधिज्ञान है और मिथ्यादृष्टि के लिए विभंग-ज्ञान है।
कहने को तो कह दिया जाता है कि एक को अज्ञान और दूसरे को ज्ञान है, किन्तु इस विभेद-कल्पना की पृष्ठभूमि में क्या रहस्य है, यह भी समझना होगा। मगर यहाँ तो हम यही मान करके आगे चलते हैं। अपनी बुद्धि से तत्त्व का निर्णय :
मिथ्यादृष्टि का ज्ञान यदि अज्ञान है, तो उसका सत्य, क्या सत्य है ? उसकी अहिंसा क्या अहिंसा है ? उसका चारित्र, क्या चारित्र है ? मिथ्यादृष्टि के जीवन में जो अच्छाइयाँ मालूम होती है, व्यवहार-दृष्टि में वे अच्छाइयाँ कहलाती हैं और कहलानी भी चाहिए, किन्तु जब सिद्धान्त की दृष्टि से देखते हैं और डुबकी लगाते हैं, तो पाते हैं कि वह सत्य, सत्य नहीं हैं, उसकी अहिंसा, अहिसा नहीं है, क्योंकि उसके मूल में अज्ञान है। मिथ्यादृष्टि का आचार अज्ञान-मूलक और अज्ञान-प्रेरित है, अतएव वह सम्यक आचार नहीं है।
जब मिथ्यादृष्टि का ज्ञान विपरीत ज्ञान कहा जाता है, तब उसका मतलब क्या होता है ? क्या उसका ज्ञान उलट-पुलट होता है ? क्या मिथ्यादृष्टि सीधे खड़े हुए आदमी को उल्टा देखता है ? उसके क्या सिर नीचे और पैर ऊपर नजर आते हैं ?
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