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सत्य दर्शन / ५९ 'समयं ति मन्नमाणे समयं वा असमया वा समया होइ त्ति उवेहाए ।'
-आचारांगसूत्र अर्थातृ-"जिसकी दृष्टि सम्यक् है, जिसकी दृष्टि में विवेक और विचार विकसित हो चुका है, उसके लिए सम्यक् तो सम्यक है ही, परन्तु असम्यक भी सम्यक् ही बन सकता है। सत्य और विवेक :
एक मुनि गोचरी के लिए चला। विवेक और विचार के साथ गृहस्थ के घर पहुंचा और शास्त्रोक्त विधि के अनुसार आहार की शुद्धता-अशुद्धता की गवेषणा की। इस प्रकार यथासंभव पूर्ण सावधानी रखते हुए भी आखिर वह छद्मस्थ है, सर्वज्ञ नहीं है और इस कारण संभव है कि अशुद्ध आहार आ गया हो। ऐसा आहार करने वाले मुनि को आप शुद्धाहारी कहेंगे या अशुद्धाहारी कहेंगे? शास्त्रकार कहते हैं कि ऐसा मुनि शुद्ध आहार ही कर रहा है।
दूसरी ओर एक ऐसा साधु है, जिसमें विवेक और विचार नहीं है। वह आहार लेने चला और उसने किसी प्रकार की पूछ-ताछ नहीं की, कोई विचार नहीं किया। पूछता तो दूसरी बात होती, पर उसने ऐसा नहीं किया और जैसा-तैसा आहार ले लिया। ऐसा करने पर भी संभव है, उसे शुद्ध आहार मिल जाए और वह अपने स्थान में आकर उसका उपयोग कर ले। शास्त्र का आदेश है कि वह आहार कदाचित् निर्दोष होते हुए भी अशुद्ध है।
हम सब चिन्तन करने बैठे हैं । शास्त्र तो है ही, किन्तु हमारा चिन्तन भी शास्त्र है, क्योंकि उसका आधार शास्त्र है। तो पहला मुनि जो आहार लाया है, शास्त्र भी ससे अशुद्ध नहीं कहता और दूसरे को यद्यपि निर्दोष आहार मिला है, फिर भी शास्त्र जस्से शुद्ध नहीं कहता। इसका कारण क्या है ? यही कि सत्य के लिए जागृति, तत्परता और चिन्तन होना चाहिए। जहाँ यह सब विद्यामान है, विवेक, विचार और चिन्तन चल रहा है और असावधानी नहीं है, वहाँ अशुद्ध भी शुद्ध है। ऐसा न होने पर यदि शुद्ध आहार लाया गया है, तब भी वह अशुद्ध ही है।
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