________________
सत्य दर्शन / ६१
दर्शन और ज्ञान :
दर्शनस्य पूज्यत्वम् सम्यग्दर्शन महान् है और यह एक ऐसा पारस है कि जिस लोहे को छूता है, सोना बना देता है। जब सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है, तो अज्ञान भी ज्ञान बन जाता है। दृष्टि बदलते ही अज्ञान, ज्ञान का रूप धारण कर लेता है। वैसे तो मिथ्यादृष्टि में भी ज्ञान ही था, अज्ञान अर्थात् ज्ञान का अभाव नहीं था, किन्तु मिथ्यादृष्टि की मिथ्यादष्टि ने उसके ज्ञान को विपरीत बना रखा था, अज्ञान बना दिया था। और जैसे ही दृष्टि बदली कि अज्ञान, ज्ञान के रूप में परिणत हो गया।
इस प्रकार हम अपने प्रेमी साथियों से, जो सत्य और असत्य के लिए आग्रह लेकर चलते हैं और झटपट किसी को मिथ्यादृष्टि कह देते हैं, कहेंगे कि यह उचित नहीं है। ऐसा करने वाले एक तरह से अपने को सर्वज्ञ होने का दावा करते हैं। हमें सम्यक् प्रकार के विवेक और विचार के प्रकाश में ही असत्य और सत्य का निर्णय करना चाहिए।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org