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५२/ सत्य दर्शन प्रकाश की किरण जब मिली, तो बोला-मैं भी इन्द्र को चुनौती दूंगा । जो मनुष्य कर सकता है, वहाँ देवता भी कदम नहीं बढ़ा सकता । जहाँ मनुष्य पहुँच सकता है, वहाँ इन्द्र की भी पहुँच नहीं हो सकती।
शास्त्रकारों ने बार-बार कहा है कि-वैभव की दृष्टि से देवता कितने ही ऊँचे क्यों न हों, परन्तु मनुष्य में एक ऐसी असाधारण शक्ति है कि उसके आगे विश्व की समग्र शक्तियाँ दब जाती हैं। राजा दशार्णभद्र को उसी मानवीय शक्ति का स्वाभिमान जाग उठा। राजा भगवान् के पास पहुंचा, तो वस्त्राभूषण, चँवर-छत्र आदि सब चीजें अलग फैक कर और साधु का वेष धारण करके पहुँचा। उसने प्रभु के चरणों में पहुँच कर अभ्यर्थना की-"प्रभो ! मैं आपकी चरण-शरण गहना चाहता हूँ | "मैं आध्यात्मिक जीवन के पावन एवं सुन्दर वातावरण में विचरण करना चाहता हूँ। मुझे अन्ते-वासी के रूप में अंगीकार कीजिए।" ___भगवान् केवलज्ञानी थे। उन्होंने देख लिया कि परिणति आ गई है। यह अहंकार से नहीं आई है। अहंकार की प्रेरणा से चला अवश्य था, किन्तु वह अहंकार भी सात्त्विक था। उसमें रजस और तमस का संसर्ग नहीं था। सात्त्विक अहंकार ने धक्का देकर इसे त्याग मार्ग पर अग्रसर कर दिया है और अब यह पीछे हटने वाला नहीं है, मुड़ने वाला भी नहीं है । वह तो आगे ही आगे बढ़ने वाला है।
बस, प्रभु ने राजा की अभ्यर्थना अंगीकार कर ली। 'अप्पाणं वोसिरामि' होते ही वह सन्त बनकर बैठ गए।
बाद में इन्द्र आया। वह भगवान् को नमस्कार करके इधर-उधर नजर दौड़ाने लगा कि वह कहाँ है, जो इतना अहंकार करके आया था? मैं उस अज्ञानी, अहंकारी का मुख म्लान देखना चाहता हूँ। इन्द्र ने इधर-उधर देखा, मगर राजा कहीं दिखाई नहीं दिया। बेचारे इन्द्र को क्या पता कि राजा ने एक ही छलाँग में समुद्र पार कर लिया
___आखिर भगवान् ने कहा-"इन्द्र ! किसे खोज रहे हो ? जहाँ दशार्णभद्र की भूमिका है, वहीं देखो। जहाँ उसकी भूमिका नहीं है, वहाँ क्यों देख रहे हो? अरे, वह तो मुनि बन चुके हैं।"
इन्द्र ने देखा-मुनि दशार्णभद्र के चेहरे पर अद्भुत तेज अठखेलियाँ कर रहा है।
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