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सत्य दर्शन/३१
कर और हाथ फेर कर फिर दुहने बैठा, तो फिर वही हाल हुआ। उसे बड़ा गुस्सा आया। वह गाय वाले के पास पहुँचा और बोला-"तू ने मुझे ठग लिया है। गाय वाले ने कहा-'मैंने कब, क्या कहा था ? मेरे कहने पर तो सौदा तय नहीं हुआ था।"
बात ठीक थी। वह भगत जी के पास पहुँचा। भगत जी उस समय भी हाथ में माला लिए बैठे थे। उसने भगत जी से कहा-"आपने मेरे साथ बड़ी बेईमानी की। आपसे तो ऐसी उम्मीद नहीं थी, भगत जी !"
भगत जी धीमे से कहने लगे-"मैंने क्या बेईमानी की है, भैया !" खरीददार-"आपने पत्थर की तरफ इशारा किया था न?"
भगत-मैंने तो ठीक ही बतलाया था कि इस पत्थर में दूध हो तो गाय में दूध हो। किन्तु तेरे अन्दर मस्तिष्क नहीं है और तू सिर्फ हड्डियों का ढाँचा ही लिए फिरता है, तो मैं क्या करूँ ?
खरीददार-अरे, ऐसी बात थी? मैं तो समझा ही नहीं। मेरी तो तकदीर फूट गई ! ___ भगत जी फिर भी प्रसन्न थे। उन्हें अपनी चतुराई पर अभिमान था ! तो अभिप्राय यह है कि कोरा वाणी का सत्य दुमुँहा है। उस सत्य की दो-दो शक्लें बनाई जा सकती हैं। इसीलिए भगवान् महावीर ने सब से पहला स्थान मन के सत्य को दिया है। मन में सत्य होगा तब ही वचन का सत्य, सत्य हो सकेगा। मन-सत्य के अभाव में वचन का सत्य छल-मात्र साबित होता है। भगत जी के मन में सत्य नहीं था तो उन्होंने धोका देने की बात की ! उनके मन में 'भगवान् नहीं था, तो पशुत्व की और राक्षसपन की भावना थी ! मन के अभाव में इसके अतिरिक्त और हो ही क्या सकता है ?
सौभाग्य से हमें भगवान महावीर का जीवन-दर्शन महाप्रकाश के रूप में मिला है कि-''सत्य का मार्ग केवल वचन से या काया से नहीं चलेगा। वह तो हमारे मन से, वचन से और काया से ही प्राप्त हो सकता है। सत्य की त्रिवेणी मन, वाणी और कर्म-इन तीनों में होकर बहती है। अतएव जिन्हें सत्य की आराधना और उपासना करनी है, उन्हें सर्वप्रथम अपने मन में सत्य को स्थान देना होगा। जो मन से सच्चा होगा, वही सत्य भगवान की उपासना करने में समर्थ हो सकेगा।
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