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३६ / सत्य दर्शन
इस सम्बन्ध में थोड़ा दार्शनिक दृष्टि से भी विचार कर लें। जिस विषय पर गहराई के साथ मनन नहीं किया जाता है, वह साफ नहीं होता और उसके सम्बन्ध में तरह-तरह की आशंकाएँ दबी रह जाती हैं ।
मिथ्या-दृष्टि और सत्य-दृष्टि :
एक आदमी मिथ्यादृष्टि है। सम्यग्दृष्टि अर्थात् सत्य की दृष्टि उसे प्राप्त नहीं है। वह पहले गुणस्थान की भूमिका में है और उसी भूमिका में सत्य बोलता है और अहिंसा का यथासंभव पालन करता है। तो भले ही आप व्यवहार में उसके सत्य को सत्य कहें और उसकी अहिंसा को अहिंसा मानें, किन्तु शास्त्र की भाषा में, यदि मनुष्य सत्य की दृष्टि नहीं रखता है, उसके विचारों में प्रकाश नहीं आया है, उसने अपने तथा दूसरों के जीवन को समझने की कला प्राप्त नहीं की है, तो उसके द्वारा बोला जाने वाला कोरा वाणी का सत्य, सत्य नहीं है और उसकी अहिंसा भी वास्तव में अहिंसा नहीं है। इसके विपरीत, यदि सत्य और अहिंसा की लहर विवेकपूर्वक आ रही है, उसमें अभिमान और लोभ-ल भ-लालच नहीं है, उसकी दृष्टि भी सत्य और अहिंसामयी बन गई है, तो उसके द्वारा बोला जाने वाला सत्य, सत्य है, पालन की जाने वाली अहिंसा, अहिंसा है। इस प्रकार वास्तविक सत्य और अहिंसा का प्रादुर्भाव विवेक की उर्वरा भूमि से होता है। अज्ञान और मिथ्यात्त्व की पृष्ठभूमि से आने वाला सत्य, नहीं है ।
सत्य.
आपको मालूम होना चाहिए कि सत्य चारित्र की भूमिका है। चारित्र की भूमिका पाँचवें और छठे गुणस्थान में आती है। जब चारित्र की भूमिका पाँचवें गुणस्थान से - पहले नहीं आती, तो प्रथम गुणस्थान में मिथ्यात्त्व की भूमिका में जो सत्य बोला जा रहा है, उसे किस प्रकार सत्य कहा जा सकता है ?
प्रश्न टेढ़ा है और इसी कारण उस पर बारीकी से विचार करने की आवश्यकता है । विचार करते समय हमें सिद्धान्त की मर्यादाओं पर दृष्टि रखनी होगी। शास्त्र ने जिन सीढ़ियों का निर्माण किया है, उन्हीं सीढ़ियों से ऊपर चढ़ना होगा और उन्हीं से रास्ता नापना होगा। उनके द्वारा रास्ता नहीं नापेंगे, तो मैं समझता हूँ, हम गलतफहमी में पड़ जाएँगे और सत्य की सीढ़ी पर नहीं पहुँचेंगे ।
सीधी-सी बात है । जब कोई प्राणी मिथ्यात्त्व की भूमिका में है, तो वहाँ जीवन का
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