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सत्य दर्शन/३५ लड़ रहा है और क्लेश कर रहा है, तो यह सब दुर्भावनाएँ कहाँ से उत्पन्न हो रही हैं ? इन दुर्बलताओं और कमजोरियों का जन्म क्यों हुआ है ? जागते समय की यह दुर्वृत्तियाँ ही तो आखिर स्वप्न में अपनी क्रीड़ा जारी रखती हैं । फिर इनका उत्तरदायित्व तुझ पर नहीं तो किस पर है ? दिन में किसी के पैर में काँटा चुभता है, तो काम में तल्लीन होने के कारण उसे मालूम नहीं होता, किन्तु रात्रि में वह पीड़ा देने लगता है। इसी प्रकार दिन में जागते समय घृणा, द्वेष, रोष आदि के जो काँटे हमारे मन में चुभ जाते हैं, वही काँटे रात्रि में सोते समय खटकते हैं, कसक पैदा करते हैं ऐसी स्थिति में यह स्पष्ट है कि अगर तूजागते समय अपने जीवन को, मन को, प्रत्येक व्यापार को अपने काबू में रखेगा, तो सोते समय का जीवन स्वतः तेरे काबू में रह सकेगा।"
इस प्रकार अपने मन को सोते और जागते एकरूप में लाना चाहिए और जीवन में सरलता आनी चाहिए।
हाँ, तो मैंने कहा है कि लोभ-लालच के वश होकर जो सत्य बोला जाता है, वह भी वास्तव में असत्य है। इसी भाँति जहाँ क्रोध है, अभिमान और अहंकार है, वहाँ भी असत्य है। तूने क्या बोला है और क्या नहीं बोला है, उसकी हम गिनती नहीं कर रहे हैं। कुछ भी क्यों न बोला हो, किन्तु अहंकार अपने-आप में असत्य है और वह पवित्र से पवित्र वाणी को भी असत्य का रूप प्रदान कर देता है।
जब कारण ही असत्य है तो कार्य सत्य कैसे बनेगा? ऐसा नहीं हो सकता है कि कुम्हार मिट्टी के तो घड़े बनाने चले और बन जाएँ वे सोने-चाँदी के । न्याय का एक निश्चित सिद्धान्त है
कारण-गुण-पूर्वको हि कार्य-गुणो दृष्टः । अर्थात् "कारण में जो गुण होंगे, विशेषताएँ होंगी वही कार्य में आएँगी।" इस रूप में हम देखते हैं कि घड़े के मूल में अगर मिट्टी है, तो घड़ा मिट्टी का बनेगा और यदि उसके मूल में सोना या चाँदी है, तो घड़ा भी सोने या चाँदी का ही बनेगा। कार्यकारण-सम्बन्धी इस नियम में कभी उलट-फेर नहीं हो सकता।
तो जब क्रोध अपने-आप में असत्य है, तो उससे प्रेरित होकर किया गया आचरण भी असत्य हो जाता है। यही बात अभिमान, छल-कपट और लोभ-लालच के विषय में भी समझी जा सकती है।
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