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४०/ सत्य दर्शन अमुक ने शास्त्र का यह अर्थ कर दिया, तो उत्सूत्र-प्ररूपणा हो गई। अमुक ने ऐसा कह दिया, तो यह हो गया और वह हो गया। मगर हमें सिद्धान्त से इस प्रश्न का उत्तर माँगना है।
__ भली-भाँति समझ लेना चाहिए कि सत्य एक चीज है और सत्य की दृष्टि दूसरी चीज है। सम्यग्दृष्टि में सत्य की दृष्टि होती है। उसका अपना दृष्टिकोण होता है। उसकी यात्रा सत्य के लिए होती है। वह जो भी ग्रहण करता है, सत्य के रूप में ही ग्रहण करता है ; फिर भी हो सकता है कि वह सत्य न हो। किन्तु उसकी इतनी बड़ी तैयारी है और इतने बड़े विचारों की भूमिका है कि जब कभी सत्य की उसे उपलब्धि होगी, तो उसे अपने अज्ञान, अहंकार, प्रतिष्ठा और कहे हुए बोलों का कोई आग्रह नहीं होगा । वह विना झिझके, विना रुके, सत्य को ग्रहण कर लेगा । सर्वज्ञता एवं पूर्ण सत्य :
जब मनुष्य सर्वज्ञता की भूमिका पर पहुँचता है, तभी उसका ज्ञान पूर्ण होता है, तभी उसे उज्ज्वलतम प्रकाश मिलता है, तभी उसे परिपूर्ण वास्तविक सत्य का पता लगता है। मगर उससे नीचे की जो भूमिकाएँ हैं, वहाँ क्या है ? जहाँ तक विचार सत्य को आज्ञा देते हैं मनुष्य सोचता है और आचरण करता है। फिर भी संभव है कि सोचते-सोचते और आचरण करते-करते ऐसी धारणाएँ बन जाएँ, जो सत्य से विपरीत हों। किन्तु जब कभी सत्य का पता चल जाए और भूल मालूम होने लगे, यह समझ आ जाए कि यह गलत बात है, तो उसे एक क्षण भी मत रखो और सत्य को ग्रहण कर लो। गलती को गलती के रूप में स्वीकार कर लो। यह सत्य की दृष्टि है, सम्यग्दृष्टि की भूमिका है। ___ छठे गुणस्थान में सत्य महाव्रत होता है, किन्तु वहाँ पर भी गलतियाँ और भूलें हो जाती हैं । पर गलती या भूल हो जाना एक बात है और उसके लिए आग्रह होना दूसरी बात है। सम्यग्दृष्टि भूल करता हुआ भी उसके लिए आग्रह-शील नहीं होता, उसका आम्रह तो सत्य के लिए ही होता है । वह असत्य को असत्य जानकर कदापि आग्रहशील न होगा । जब उसे सत्य का पता लगेगा, वह स्पष्ट शब्दों में, अपनी प्रतिष्ठा को जोखिम में डालकर भी यही कहेगा--"पहले मैंने ऐसा कहा था, इस बात का समर्थन किया था और अब यह सत्य बात सामने आ गई है, तो इसे कैसे अस्वीकार
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