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सत्य दर्शन / १५ हैं। जीवन में भी यही गति होती है। जीवन में विचार का छोटा-सा बीज पड़ जाता है, और यदि उसमें पनपने की शक्ति होती है, तो वह एक दिन विशाल रूप धारण कर लेता है।
हाँ, तो चोर के मन में मन्थन आरम्भ हुआ। वह सोचने लगा- "मैं अहिंसा के देवता की बाणी सुनकर आया हूँ। चोरी करने में हिंसा अनिवार्य है; परन्तु क्या वह संभव नहीं कि मेरा काम भी बन जाय और हिंसा भी कम से कम हो ? इस तरह चोरी भी उसे अहिंसा की बात सुनाने लगी।
चोर ने सोचा- "किसी साधारण आदमी के घर चोरी करूँगा, तो उसे कठिनाई होगी । न मालूम बेचारा कब तक रोएगा और अपने परिवार का निर्वाह कैसे करेगा ? अतः चोरी करनी ही है तो ऐसी जगह करनी चाहिए कि गहरा हाथ पड़ जाए तो भी घर का मालिक रोने न बैठे। तो फिर किसके यहाँ जाऊँ ?
"हाँ, राजा हैं। उनके यहाँ दिन-रात पराया माल आता रहता है। राजा के खजाने से कुछ ले भी लिया, तो क्या कमी पड़ने वाली है। हाथी के खाने में से चिउँटी एक-दो दा उठा लाए तो हाथी का कुछ भी बनता - बिगड़ता नहीं और चिउँटी का काम बन जाता है। अतएव राजा के यहाँ ही चोरी करनी चाहिए ।"
एक दिन वह खजाने की तरफ गया । तालों की भली-भाँति जाँच कर आया । उनकी तालियाँ बनवा लीं। अब एक दिन आधी रात को सेठ के रूप में, तालियों का गुच्छा लेकर वह चल दिया खजाने में चोरी करने ।
श्रेणिक और अभय :
वह पुराना युग था । उस समय के राजा प्रजा से कर वसूल करते थे सही, पर बदले में प्रजा की सेवा भी करते थे; यह नहीं कि महलों में मस्त पड़े हैं और नहीं मालूम कि प्रजा पर क्या -कैसी गुजर रही है।
उस समय श्रेणिक जैसे राजा और अभयकुमार जैसे मंन्त्री थे, जो प्रजा में घुल-मिल गए थे। वे प्रायः वेष बदल कर रात्रि के समय घूमने चल दिया करते थे । सोचते थे-जानना चाहिए कि प्रजा को क्या पीड़ा है और कौन-सा कष्ट है ? संभव है, जनता की आवाज हम तक न पहुँच पाती हो। यद्यपि हमारे पास कोई भी और कभी भी आ सकता है, फिर भी संभव है लोगों को आने और कहने की हिम्मत न पड़ती हो ।
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