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१६ / सत्य दर्शन मगर हमें तो इतनी हिम्मत चाहिए कि हम प्रजा की आवाज सुन सकें । लोग रात के समय अपने-अपने घरों में खुलकर बातें करेंगे और उनसे हमें उनकी ठीक-ठीक स्थिति का पता लग जाएगा।
इस प्रकार विचार कर राजा और मन्त्री अक्सर गलियों में चक्कर काट लिया करते थे। उस दिन भी दोनों वेष-परिवर्तन करके राजमहल से निकले। इधर से यह जा रहे थे और उधर से सेठ बना हुआ चोर आ रहा था। अकस्मात् सामना हो गया। राजा ने पूछा- "कौन ?
अब सत्य-पालन का प्रश्न आ खड़ा हुआ। वह सत्य-भाषण करने का नियम लेकर आया है, और पहली बार में ही उसकी अग्नि परीक्षा का अवसर आ गया। चोर क्षण-भर के लिए हिचकिचाया, मगर तुरन्त संभल गया। उसने निश्चय किया-"कुछ भी हो, सत्य ही बोलना चाहिए।
इसी समय दोबारा वही प्रश्न उसके कानों से टकराया। उसने कहा-कौन ? चोर । और वह आगे चलता बना।
चोर का उत्तर सुनकर राजा और मन्त्री मुस्करा कर बगल से निकल गए। राजा ने मन्त्री से कहा- "यह तो कोई भला आदमी था। व्यर्थ ही हमने एक राह चलते भले आदमी को टोका ।"
मन्त्री ने उत्तर दिया--"जी हाँ तभी तो यह उत्तर मिला। चोर अपने मुँह से कभी अपने को चोर नहीं कहता, वह तो साहूकार कह कर ही अपना परिचय देता है। चोर को चोर कहने की हिम्मत नहीं हो सकती।
राजा और मन्त्री बातें करते-करते आगे बढ़ गए और सेठ बना हुआ चोर खजाने के दरवाजे पर पहुँचा । वहाँ पहरा था। पहरेदार ने पूछा-'कौन है?"
चोर ने बिना हिचकिचाहट उत्तर दिया- चोर हूँ।"
पहरेदार ने यह सुना तो वह भी उसे राज्य-अधिकारी समझकर अलग हट गया। चोर ने खजाने का ताला खोला । भीतर जाकर इधर-उधर देखा। राजा का खजाना था--अपार सम्पत्ति का भण्डार ! उसमें चोर ने बहुमूल्य जवाहरात के चार डिब्बे देखे और वे ही उसे पसंद आ गए। उसमें दो डिब्बे उसने उठा लिए और बगल में दबा
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