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सत्य दर्शन / २७ करो। बालक के सामने यह बड़ी विचित्र पहेली है। उसकी कोमल बुद्धि इस पहेली को बुझाने में समर्थ नहीं होती और उसका जीवन असत्य के अंधकार में डूब जाता है।
होना तो यह चाहिए कि आपके बालक जहाँ कहीं जाएँ. किसी भी देश में जाएँ. तो वे आपकी बातें समझा सकें, आपके नाम पर चार चाँद लगाकर लौटें और वहाँ आपकी स्मृति ऐसी अमर बना दें कि भुलाये न भूले । मगर यह चीज जीवन में बन नहीं पाती है, क्योंकि हम प्रारम्भ में ख्याल नहीं रखते। यह बात तो तब हो सकती है, जब बाप से भूल हुई तो, वह स्पष्ट रूप से कहे-'मुझे से भूल हो गई है भैया !' और इसी प्रकार पुत्र भी विनयपूर्वक अपनी भूल को स्वीकार करे। गुरु अपनी भूल को निष्कपट भाव से स्वीकार करे और शिष्य भी अपनी भूल पर पर्दा डालने का प्रयत्न न करके निःसंकोच भाव से उसे स्वीकार करे। पिता और पुत्र :
इस समय गोखले के जीवन की एक घटना याद आ जाती है। वे अपने कमरे में बैठे थे और कुछ लिखना चाहते थे। पास ही उनका छोटा बच्चा था और कुछ लिख-पढ़ रहा था । गोखले ने उससे कहा-"बेटा दवात लाना।" लड़के ने दवात पकड़ा दी। वे लिखने लगे। लिख चुकने पर जब दवात वापिस लौटाने लगे, तो बच्चा आया। दवात देने के लिए उन्होंने हाथ फैलाया। उस समय उनकी समग्र चेतना और मन अपने लेख में डूबा था और शून्य मन से उन्होंने हाथ फैला दिया। परिणाम यह हुआ कि दवात पकड़ने के लिए.बच्चा ठीक तरह हाथ फैला नहीं पाया था कि गोखले ने अपने हाथ से दवात छोड़ दी। दवात कालीन पर गिर कर फूट गई, स्याही से फर्श रंग गया । यह देख बच्चा भयभीत हो गया और काँपने लगा और पत्थर की मूर्ति की तरह स्तंभित रह गया । गोखले ने पूछा-"बेटा, दवात कैसे गिर गई ?" लड़का बोला-''मैं उसे ठीक तरह पकड़ नहीं सका था ।" गोखले ने उसे थपकी देकर कहा-"यों मत कहो, यों कहो कि आपने मुझको अच्छी तरह पकड़ाई नहीं थी। बालक ने फिर कहा-"नहीं पिताजी, यह बात नहीं । वास्तव में मैं अच्छी तरह पकड़ नहीं सका। तब महाशय गोखले फिर बोले-"नहीं, मेरा मन लेख में उलझा था और अन्यमनस्क भाव से मैंने तुम्हें दवात पकड़ाई थी। मुझे दवात पकड़ाने का काम करना था, तो चेतना भी उसी तरफ रखनी चाहिए थी । मगर मैने अपने कर्तव्य का भली-भाँति पालन नहीं किया । यह तुम्हारी नहीं, मेरी अपनी भूल है।"
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