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समय ॥७॥
अर' मगनपणों ये समस्त अजीवका खेल है | २७ ॥ अव पुण्यतत्त्व कथन ॥ ३ ॥ दोहा ॥जो विशुद्धभावनि धै, अरु ऊरवमुख हो । जो सुखदायक जगतमें, पुन्यपदारथ सोइ ||२८|| अर्थ-जाका विशुद्धभावनितैं बंध होय अर ऊर्धगतिकै सन्मुख करानेवाला होय अर जगतमें सुखका देनेवाला सो पुन्यपदार्थ है || २८ ॥ अव पापतत्त्व कथन ॥ ४ ॥ दोहा ॥संक्लेश भावनि बंधे, सहज अधोमुख होइ । दुखदायक संसार में, पापपदारथ सोइ ॥ २९ ॥
अर्थ- संक्लेश परिणामनिकरितो जाका बंध होय अर सहजही अधोगतिकै सन्मुख होय अर संसार में दुःखका देनेवाला सो पापपदार्थ है ।। २९ ।। अब आश्रवतत्त्व ॥ ५ ॥ दोहा ॥ - जोई कर्म उदोधर, होइ क्रियारस रत्त । करषै नूतन कर्मको, सोई आश्रव तत्व ॥ ३० ॥
अर्थ- जो कर्म उदयरूप होय तामें सक्तकरे अर शुभअशुभ क्रियाको अर नूतन कर्मकों खैचें (करावे) सो आश्रव तत्व है ॥ ३० ॥ अव संवरतत्व कथन ॥ ६ ॥ दोहा ॥| जो उपयोग स्वरूप धरि, वरतैं जोग विरत । रोकै आवत करमकौं, सो है संवर तत्व ||३१||
अर्थ - जो अपनें ज्ञान दर्शन उपयोगकूं धरे अर मनवचन कायकी क्रियातें विरक्त | होय आवते कर्मकूं रोके सो संवरतत्व है ॥ ३१ ॥ अव निर्जरातत्व कथन ॥ ७ ॥ दोहा ॥जो पूरव सत्ताकर्म, करि थिति पूरण आउ । खिरवेकौं उद्दित भयो, सो निर्जरा लखाउ ||३२||
अर्थ - जो पूर्वकालमें बंधकीया तातै सत्ता मैं तिष्टताकर्म अपनी स्थितिं पूर्ण करिकै खिरनें उद्यमी भया सो निर्जरातत्व है ॥ ३२ ॥ अव बंधतत्व कथन ॥ ८ ॥ दोहा ॥जो नवकर्म पुरानसौं, मिलें गंठिदिढ होइ । शक्ति बढावै वंशकी, बंधपदारथ सोइ ॥ ३३ ॥
सार
नाटक.
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