Book Title: Rushibhashit Sutra
Author(s): Vinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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13. मेतेज्ज भयाली
ऋषिभाषित 39 का तेरहवाँ अध्याय मेतेज्ज भयालि से सम्बन्धित है। ऋषिभाषित के अतिरिक्त जैन साहित्य में भयालि का उल्लेख समवायांग 140 में उपलब्ध होता है। समवायांग में इन्हें आगामी उत्सर्पिणी काल में होने वाला संवर नामक उन्नीसवाँ तीर्थंकर बताया गया है। भयालि के दो अन्य प्राकृत रूप भमालि और भग्गइ भी मिलते हैं। स्थानांगसूत्र 141 में अन्तकृत्दशा का सातवाँ अध्याय भगालि से सम्बन्धित माना गया है। यद्यपि वर्तमान में यह अध्ययन उपलब्ध नहीं है, किन्तु मेरी दृष्टि में अन्तकृत्दशा के प्राचीन संस्करण में अवश्य ही यह अध्याय रहा होगा और उसमें भगालि के जीवनवृत्त अथवा उपदेशों का संकलन किया गया होगा । औपपातिक में भग्गइ नामक एक क्षत्रिय परिव्राजक और उसके अनुयायियों का उल्लेख हुआ है। सम्भव है कि भयालि या भगालि अनुयायी ही भग्ग के नाम से जाने जाते हों ।
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ऋषिभाषित में भयालि के उपदेशों का प्रतिपाद्य विषय तो आत्म-विमुक्ति है। वे कहते हैं कि फल की इच्छा वाला ही पेड़ का सिंचन करता है। जिसे फल की इच्छा नहीं है वह सिंचन भी नहीं करता । मूल का सिंचन करने से ही फल की उत्पत्ति होती है। मूल को नष्ट कर देने से फल भी नष्ट हो जाता है। इस प्रकार वे यह बताना चाहते हैं कि संसार से मुक्ति प्राप्त करने के लिए संसार के मूलभूत कारणों का ही विनाश करना होगा। इसके अतिरिक्त दार्शनिक दृष्टि से भयालि यह प्रतिपादन भी करते हैं कि सत् का कोई कारण नहीं होता और असत् का भी कोई कारण नहीं होता। असत् का भव-संक्रमण भी नहीं होता ।
इस प्रकार उनके दर्शन में उपनिषद्, गीता और साँख्य का वह तत्त्व समाहित है जिसके अनुसार यह माना जाता है कि सत् का विनाश नहीं होता और असत् की उत्पत्ति नहीं होती । इसी बात को प्रकारान्तर से इस अध्याय में कहा गया है।
जहाँ तक भयालि के नाम के साथ लगे मेतेज्ज शब्द का प्रश्न है, महावीर के दसवें गणधर का नाम भी मेतेज्ज था, किन्तु मेरी दृष्टि में ये मेतेज्ज भयालि उनसे भिन्न व्यक्ति हैं। इनके अतिरिक्त एक अन्य मेतेज्ज नामक श्रमण का उल्लेख मिलता है जो राजगृह के निवासी थे और जिन्होंने अपने जीवन को बलिवेदी पर चढ़ाकर भी अहिंसा व्रत की रक्षा की थी । इनका उल्लेख आवश्यकनिर्युक्ति, 142 विशेषावश्यकभाष्य,143 आवश्यकचूर्णि, 144 स्थानांग, 145 और स्थानांग की अभयदेवीय टीका 146 में मिलता है । सम्भव है ये और ऋषिभाषित के उल्लेखित
62 इसिभासियाई सुत्ताई