Book Title: Rushibhashit Sutra
Author(s): Vinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 435
________________ सदेवोरगगन्धव्वं, सतिरिक्खं समाणुसं। वत्तं तेहिं जगं किच्छं, तण्हापासणिबन्धणं।।47।। 47. जिसने तृष्णारूपी पाश का बन्धन तोड़ दिया है उसने देव, नाग, गन्धर्व, तिर्यंच और मानवों के साथ सम्पूर्ण जगत् का त्याग कर दिया है। 47. One who has renounced desire, has abandoned the entire universe comprising angels, gods, demigods, animals and men. अक्खोवंगो, वणे लेवो, ताणवं जं जउस्स य। णामणं उसुणो जं च, जुत्तितो कज्जकारणं।।48।। __48. आँख में अंजन लगाना, घाव पर लेप लगाना, लाख को तपाना और बाण को झुकाना, इन सबके पीछे उचित कार्य-कारणों की परम्परा होती है। 48. Reason relates the application of ointment to eye, analgesic salves to wound, softening the lacquer and bending the arrow. आहारादीपडीकारो, सव्वण्णुवयणाहितो। अप्पाहु तिव्ववण्हिस्स, संजमट्ठाए संजमो।।49।। __49. जीव संयम का पालन करने हेतु क्षुधा की तीव्र आग का प्रतिकार करने के लिये आहारादि का ग्रहण करता है, वह सर्वज्ञवचनों से अनुमोदित है और संयम के लिये हितकारी है। 49. It is for practising austerity that food is consumed to ward off hunger. This is endorsed by the knowledgeable and is beneficial to an ascetic. हेमं वा आयसं वा वि, बन्धणं दुक्खकारणं। महग्घस्सावि दण्डस्स, णिवाए दुक्खसंपदा।।50।। 50. सोने का बन्धन हो या लोहे का, वह दुःख का ही कारण होता है। महामूल्य वाला दण्ड पड़ने पर भी दुःखप्रद तो होता ही है। 50. Fetters of gold are as distressing as those of iron. A gemdecked rod will hit as painfully as a plain one. आसज्जमाणे दिव्वम्मि, धीमता कज्जकारणं। कत्तारे अभिचारित्ता, विणीयं देहधारणं।।51।। 51. स्वर्ग के प्रति भी अनासक्त होकर प्रज्ञाशील कर्तव्य की कार्य-कारण परम्परा को अनिवार्य रूप से दूर करता हुआ देहधारण-शरीर को भी (प्रायोपगमनादि अनशन के द्वारा) समाप्त करे। 434 इसिभासियाई सुत्ताई

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