Book Title: Rushibhashit Sutra
Author(s): Vinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 405
________________ ण दुक्खं ण सुहं वा वि, जहा-हेतु तिगिच्छति। तिगिच्छिए सुजुत्तस्स, दुक्खं वा जइ वा सुहं।।8।। 8. जिस हेतु (व्याधि) को लेकर चिकित्सा की जाती है वहाँ न दुःख है और न सुख है, किन्तु चिकित्सा में संलग्न रोगी को दुःख अथवा सुख हो सकता है। 8. No pleasure and pain inhere in the malady itself. However the patient undergoing treatment may be experiencing pleasure or pain. मोहक्खए उ जुत्तस्स, दुक्खं वा जइ वा सुहं। मोहक्खए जहा-हेऊ, न दुक्खं न वि वा सुहं।।9।। 9. मोह का क्षय करने में प्रवृत्त व्यक्ति को दुःख और सुख हो सकते हैं, किन्तु जिस हेतु (अन्तरंग व्याधि का नाश कर, मुक्ति प्राप्त करने के लिए) मोह का क्षय करता है वहाँ न (भौतिक) दुःख है और न (भौतिक) सुख है, अर्थात मोह का क्षय कर आनन्दमयी आत्मिक स्थिति को प्राप्त करता है। 9. The individual undergoing the treatment to be cured of attachment may experience pain or pleasure. However, the purpose of curing the disease of attachment is neutral so far as pleasure and pain sensations are concerned. तुच्छे जणम्मि संवेगो, निव्वेदो उत्तमे जणे। अत्थितादीणभावाणं, विसेसो उवदेसणं।।10।। 10. सामान्यजनों में संवेग (नरकादिजन्य दुःखों को देखकर मन में भय) होता है, उत्तम जनों में निर्वेद (विषयों के प्रति अनासक्ति भाव) होता है और अर्थिजनों में दीनभाव होता है, अथवा संवेग और निर्वेद (आत्मविद्या रहित होने से) ये दोनों दीनभाव हैं। अतः इनको विशेष रूप से (आत्मविद्या का) उपदेश दिया गया है। ___10. The ordinary folk are prone to emotive sway. Superior beings are indifferent to such urges. Selfish beings are meanly prone to emotive sway. Hence the latter have specially been tackled by preachers. सामण्णे गीतणीमाणा, विसेसे मम्मवेधिणी। सव्वण्णुभासिया वाणी, णाणावत्थोदयन्तरे।।11।। 11. सर्वज्ञभाषित वाणी नानाविध अवस्था और उदय के भेद से सामान्यजनों में संगीतमय होने से हृदयग्राही होती है और उत्तमजनों में मर्मवेधिनी होती है। अथवा 404 इसिभासियाइं सुत्ताई

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