Book Title: Rushibhashit Sutra
Author(s): Vinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 412
________________ 39. एगूणचत्तालीसं संजइज्जज्झयणं जा पुत्तं पावकं कम्मं, नेव कुज्जा ण कारवे। देवावि तं णमंसन्ति, धितिमं दित्ततेजसं।।1।। 1. जो मानव इन पाप कर्मों को न स्वयं करता है और न दूसरों से करवाता है उस धृतिमान और दीप्ततेजस्वी को देवता भी नमस्कार करते हैं। 1. The conduct of a man who neither indulges in sin nor abets other to do it merits highest respect from angels. जे णरे कव्वती पावं, अन्धकारं महं करे। अणवज्जं पण्डिते किच्चा, आदिच्चेव पभासती।।2।। 2. जो मानव पाप-कर्म करता है वह अन्धकार की वांछा करता है, अथवा अन्धकार का मंथन करता है। जो पण्डित पुरुष पापरहित कर्तव्य करता है वह सूर्य की तरह प्रकाशित होता है। 2. A sinful creature cherishes and cultivates dark forces of evil. The wise who carries through sin-free conduct is akin to the sun in splendour. सिया पावं सई कुज्जा, तं ण कुज्जा पुणो पुणो। णाणि कम्मं च णं कुज्जा, साधु कम्मं वियाणिया।।3।। 3. पाप का प्रसंग आने पर कदाचित् एक बार पापकृत्य का आचरण हो भी जाए तब भी बारम्बार उस पापकृत्य को न करे। ज्ञानवान शुभ-कृत्यों को पहचान कर उन्हीं का आचरण करे। 3. If, perchance, one is led into the alley of sinful deed, one should subsequently, steer clear of such a monstrous conduct. The wise should perform exclusively virtuous acts. सिया पावं सई कुज्जा तं तु पुणो पुणो। से निकायं च णं कुज्जा साहु भोज्जो वि जायति।।4।। रहस्से खलु भो पावं कम्मं समज्जिणित्ता दव्वओ खेत्तओ कालओ भावओ कम्मओ अज्झवसायओ सम्मं अपलिउंचमाणे जहत्थं आलोएज्जा। संजएणं अरहता इसिणा बुइतं। 39. संजय अध्ययन 411

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