Book Title: Rushibhashit Sutra
Author(s): Vinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 417
________________ 4. Like a fish drawn to waterless moss, an attached individual lured by the immediate temptations meets a hapless end. दित्तं पावन्ति उक्कण्ठं, वारिमज्ञ व वारणा। आहारमेत्तसंबद्धा, कज्जाकज्जणिमिल्लिता।।5।। 5. जैसे जल में रहा हुआ हस्ति उत्कट उद्दीपन को प्राप्त करता है वैसे ही आहार मात्र से सम्बन्ध रखने वाला कार्याकार्य की विचारणा से आंखें मूंद लेता है अर्थात् विवेक रहित हो जाता है। 5. As an elephant sporting ecstatically in wild waters, a gourmendiser is befuddled to close eyes to all sense of perspective. मक्खिणो घतकम्भे वा अवसा पावेन्ति संखयं। मधु पास्यति दुर्बुद्धी, पवातं से ण पस्सति।।6।। 6. घी के घड़े में पड़ी हुई मक्खी विवश होकर मृत्यु को अवश्य प्राप्त करती है। मधुबिन्दु को प्राप्त करने वाला दुर्बुद्धि मनुष्य नीचे के प्रपात (गहरी खाई) को नहीं देखता है। 6. A fly is ointment is nearing its sure death. An obtuse individual greedily sucks droplets of nectar dripping from above but is forgetful of the deep abysm beneath. आमिसत्थी झसो चेव, मग्गते अप्यणा गलं। आमिसत्थी चरित्तं तु, जीवे हिंसति दुम्मती।।7।। 7. मांसलोलुप मत्स्य स्वयं गल (मछली पकड़ने के कांटे) को खोजता है। मांसार्थी के चरित्र के समान दुर्बुद्धि मनुष्य प्राणियों की हिंसा करता है। 7. The voracious fish seeks the angling fork of its own accord similarly ill-witted folk cause bodily loss to other individuals. अणग्घेयं मणिं मोत्तुं, सुत्तमत्ताभिनन्दती। सव्वण्णुसासणं मोत्तुं, मोहादीएहिं हिंसती। सोअ-मत्तेण विसं गेज्झं, जाणं तत्थेव जूंजती।।8।। 8. जैसे अज्ञानी महामूल्यवान मणि को फेंककर केवल सीप को पाकर प्रसन्न हो जाता है वैसे ही अज्ञानी सर्वज्ञ के शासन को छोड़कर मोहादिक कषायों से स्वचरित्र का हनन करता है। श्रोत्र मात्र से ही विष ग्रहण करने योग्य है (मुख से ग्रहण करने पर मृत्यु है।) यह जानकर भी अज्ञानी उसी को ग्रहण करता है। 416 इसिभासियाई सुत्ताई

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