Book Title: Rushibhashit Sutra
Author(s): Vinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 431
________________ 29. भीषण सर्दी से पीड़ित को अग्नि प्रिय है, पवन से पीड़ित को हवा-रहित स्थान प्रिय है, भयत्रस्त को सुरक्षा प्रिय है और ऋणी को धन-प्राप्ति प्रिय है। (वैसे ही मुमुक्षु को नानाभावगुणोपत जिनेश्वर की आज्ञा प्रिय है।) 29. A freezing man dreams of a hearth; one tossed by hurricanes—a closed niche; a frightened being--a reassurance and a debtor wealth. (An aspirant on this analogy seeks the flourishing Jain moral code.) गम्भीरं सव्वतोभदं, हेतुभंगणयुज्जलं। सरणं पयतो मण्णे, जिणिन्दवयणं तहा।।30।। 30. गम्भीर, सर्वतोभद्र, हेत, भंग और नय से उज्ज्वल जिनेश्वर वाणी की शरण जाने वाला भी ऐसे ही आनन्द का अनुभव करता है। 30. Jain philosophy is sober, versatile, rational and logical. One resorting to it is rewarded with bliss. सारदं व जलं सुद्धं, पुण्णं वा ससिमण्डलं। जच्चमणिं अघटुं वा, थिरं वा मेतिणीतलं।।31।। 31. जैसे शरद् ऋतु का जल शुद्ध होता है, चन्द्र मण्डल पूर्ण होता है, अघट्टतराशी हुई अखण्डित उत्तम मणि होती है और पृथ्वी स्थिर होती है। 31. As the water in winter is clear, moon full-orbed, duly cut gem shapely and terra firma stable साभावियगुणोवेतं, भासते जिणसासणं। ससीतारापडिच्छण्णं, सारदं वा णभंगणं।।32।। 32. वैसे ही स्वाभाविक गुणों से युक्त जिनेश्वर देव का शासन-जिनशासन शोभायमान होता है, जैसे चन्द्र और तारागण से परिपूर्ण शरत्पूर्णिमा का आकाश मण्डल शोभायमान होता है। ____ 32. So Jainism is splendid like the star-studded sky on a full moon day in winter. सव्वण्णुसासणं पप्प, विण्णाणं पवियम्भते। हिमवन्तं गिरिं पप्पा, तरूणं चारु वागमो।।33। 33. जो सर्वज्ञशासन-जिनशासन प्राप्त कर लेता है उसका आत्मिक विज्ञान भी वैसा ही विकसित हो जाता है जैसा कि हिमवन्तगिरि हिमालय को प्राप्तकर वृक्षों में सुन्दरता का प्रादुर्भाव हो जाता है। 430 इसिभासियाई सुत्ताई

Loading...

Page Navigation
1 ... 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512