Book Title: Rushibhashit Sutra
Author(s): Vinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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24. चउवीसं हरिगिरिणामज्झयणं
सव्वमिणं पुरा भव्वं, इदाणिं पुण अभव्वं । हरिगिरिणा अरहता इसिणा
बुइतं ।
पहले यहाँ सब कुछ भव्य (भवितव्यतापेक्ष) था। अब सब कुछ अभव्य (भवितव्य रहित) है।
ऐसा अर्हत् हरिगिरि ऋषि बोले
Previously, existence was prone to unpredictable occurrences. Now that uncertainty is no more, said Harigiri the seer:
चयन्ति खलु भो य णेरड्या णेरतियत्ता तिरिक्खा तिरिक्खत्ता मणुस्सा मणुसत्ता देवा देवत्ता, अणुपरियदृन्ति जीवा चाउरन्तं संसारकन्तारं कम्माशुगामिणो । तधावि मे जीवे इधलोके सुहुप्पायके, परलोके दुहुप्पादए अणिए अधुवे अणितिए अणिच्चे असासते सज्जति रज्जति गिज्झति मुज्झति अज्झोववज्जति विणिघातमावज्जति । इमं च णं पुणो सडणपडण - विकिरण-विद्धंसणधम्मं अणेगजोगक्खेमसमायुत्तं जीवस्सऽतारेलुकिं संसारणिव्वेढिं करोति, संसारणिव्वेढिं करेत्ता अणाइयं अनवदग्गं दीहमद्धं चाउरन्तसंसारसागरं अणुपरियट्टा । तम्हाऽधुवं असासतमिणं संसारे सव्वजीवाणं संसतीकारणमिति णच्चा णाणदंसणचरित्ताणि सेविस्सामि, णाणदंसणचरित्ताणि सेवित्ता अणादीयं जाव कन्तारं वीतिवतित्ता सिवमचल जाव ठाणं अब्भुवगते चिट्ठिस्सामि ।
भो ! नारकी नारकत्व को, तिर्यञ्च योनि वाले तिर्यक् योनित्व को, मनुष्य मनुष्यत्व को और देव देवत्व को छोड़कर, कर्मानुगामी जीव चतुर्गतिरूप संसारवन में परिभ्रमण करते हैं। तथापि मेरी आत्मा इस लोक में सुख का उत्पादन करती है, परलोक में दुःख पैदा करती है । अनियत, चंचल, अव्यवस्थित, अनित्य और अशाश्वत इस लोक में यह (मेरी आत्मा) आसक्त होती है, अनुरक्त होती है, गृद्ध होती है, मोहित होती है, अत्यासक्त होती है और मरण प्राप्त करती है। यही पुनः संसार में सड़ती, गिरती, बिखरती, नष्ट आदि धर्मों को प्राप्त करती है । विविध योग-क्षेम और समत्व से रहित जीव के लिए यह संसार दुस्तरणीय है । वह संसार के गाढ़ बन्धनों से बँधता है । संसार में गाढ़ बन्धनों से बन्धकर, अनादि अनन्त,
328 इसिभासियाई सुत्ताई