Book Title: Rushibhashit Sutra
Author(s): Vinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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28. दूसरे की घात करने की इच्छा वाला व्यक्ति अहंकार और मोहमल्ल से उद्धत होने के कारण गुण और दोष से शून्य (विवेकहीन) हो जाता है। जैसे जर्जर वृद्ध सिंह निर्बल प्राणियों का वध करते समय विवेक शून्य हो जाता है।
28. A selfish, destructive individual is devoid of discretion in the vainglorious sway, like the fabulous senile tiger marauding weaklings.
पच्चुप्पण्णरसे गिद्धो, मोहमल्लपणोल्लिओ।
दित्तं पावइ उक्कण्ठं, वारिमज्झे व वारणो।।29।। 29. जैसे जल में रहा हुआ हाथी उत्तेजित हो जाता है वैसी ही मोहमल्ल से प्रेरित आत्मा वार्तमानिक भोगों में अत्यासक्त और उत्तेजित हो जाता है।
29. As the waterbound elephant loses patience, and is flabbergasted so does an individual engrossed in present pleasures.
स-वसो पावं पुरा किच्चा, दक्खं वेदतं दम्मती।
आसत्तकण्ठपासो वा, मुक्कधारो दुहट्टिओ।।30।। 30. स्वकृत पूर्वपाप के वशीभूत होकर दुर्मति जीव दुःख का अनुभव करता है। वह गले में फंदा कसकर दुःख और विपदाओं की धारा में अपने आपको छोड़ देता है।
30. An unwise individual is heir to misery on account of his earlier sins. He strangulates his own self and embraces the train of miserable events.
चंचलं सुहमादाय, सत्ता मोहम्मि माणवा। .
आदिच्चरस्सितत्ता वा, मच्छा झिज्जन्तपाणिया।।31।। 31. चंचल सुख को प्राप्त कर मानव मोह में आसक्त हो जाते हैं किन्तु बाद में सूर्य की किरणों से तप्त जल के क्षय होने पर मछली की भाँति तड़पते हैं।
31. Human beings abandon themselves in sheer orgies and then regret like a fish out of water evaporated in scorching sun.
अधुवं संसिया रज्जं, अवसा पावन्ति संखयं।
छिज्ज व तरुमारूढा, फलत्थी व जहा नरा।।32।। 32. अस्थिर राज्य में आश्रित व्यक्ति अवश्य ही नाश को प्राप्त होता है। जैसे छेद/नाश होने योग्य वृक्ष पर बैठा हुआ फलाकांक्षी मानव।
336 इसिभासियाइं सुत्ताई